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[ जैनधर्म-मीमांसा
अनिवार्यता का यह ठीक रूप नहीं है किन्तु इसके लिये प्रत्येक सम्भव उपाय की खोज कर लेना चाहिये ।
दूसरी बात यह है कि प्राणियों की द्रव्यहिंसा चार तरह की होती है— संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी ।
किसी निरपराध प्राणीकी जान बूझकर हिंसा करना या अनिच्छापूर्वक भी इस तरह कार्य करना जिससे हिंसा न होने की जगह भी हिंसा हो जाय, वह संकल्पी हिंसा है कसाई या शिकारी के द्वारा होनेवाला पशुवध साधारणतः संकल्पी हिंसा है
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सफ़ाई करने, भोजन बनाने आदि कार्यों में जो यथायोग्य यत्नाचार करने पर भी हिंसा होती है, वह आरम्भी हिंसा है । अर्थोपार्जन में जो हिंसा होती है, वह उद्योगी हिंसा है । कोई दूसरा प्राणी अपने ऊपर आक्रमण करे तो आत्मरक्षा के लिये उसका वध करना विरोधी हिंसा है । जैसे रामने रावण का वध किया
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इन चार प्रकार की हिंसाओं में संकल्पी हिंसा ही वास्तव में हिंसा है। बाकी तीन प्रकार की हिंसाएँ तो तभी हिंसा कही जा सकती हैं जब वे अपनी मात्रा का उल्लंघन कर जाय, उसमें प्रमाद और कषाय की तीव्रता हो जाय अथवा वे अनिवार्य न रहें ।
औषध के लिये दूसरे प्राणी को मारने में संकल्पी हिंसा है जब कि अपन शरीर में पड़े हुए कीड़ों को मारने में विरोधी हिंसा है । इसलिये पहिली को हम हिंसा कहते हैं, दूसरी को नहीं ।
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