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धन्य-चरित्र/37 मेंढ़े को हाथ में लिए चारों ओर खड़े थे।
राजपुत्र के आगे रहे हुए अनुचर पुरुष ने कहा-"स्वामी! धनसार व्यापारी का पुत्र मेंढ़े को लेकर आ रहा है। इसके पिता धनाढ्य हैं। अतः इसको साम-वचनों द्वारा तुष्ट करके इसके साथ मेंढ़े की होड़ लगाकर लक्ष धन ग्रहण करेंगे।"
__ इस प्रकार विचार करके वे धन्य के सम्मुख गये। धन्यकुमार को बुलाकर कहा- "हे धन्यकुमार! हमारे मेंढ़े के साथं यदि तुम्हारा मेंढ़ा युद्ध करने के लिए समर्थ है, तो लक्ष द्रव्य की शर्त से युद्ध करवाया जाये। यदि तुम्हारा मेंढ़ा जीतेगा, तो हम लक्ष स्वर्ण देंगे और यदि हमारा मेंढ़ा जीतेगा, तो हम लक्ष स्वर्ण तुमसे ग्रहण करेंगे।"
राजकुमार का कहा हुआ सुनकर धन्य ने विचार किया-"सर्व लक्षण से युक्त मेरा मेंढ़ा दुर्बल होते हुए भी युद्ध में जीतेगा। अतः आये हुए लक्ष धन को कैसे छोड़ दूँ। इस प्रकार मन में निश्चित करके राज मेंढ़े के साथ अपने मेंढे का युद्ध करवाया। मेंढ़े के सर्व लक्षण युक्त होने से तथा धन्य की भाग्यातिरेकता होने से मेंढ़ा जीत गया। धन्य ने लक्ष स्वर्ण ग्रहण कर लिया। कहा भी है
यतो धुते युद्धे रणे वादे यतो धर्मस्ततो जयः ।। अर्थात् जुए में, रण में, युद्ध में, वाद में, सर्वत्र ही जहाँ धर्म है, वहीं जय
है।
तब राजकुमार ने चिंतन किया-"अहो! इसके दुर्बल मेंढ़े ने मेरे मेंढ़े को हरा दिया। यह मेंढ़ा जिस किसी भी देश में उत्पन्न हुआ हो, सुलक्षणों से पूर्ण है। अतः मैं इसे ग्रहण कर लूँ तो अन्य मेंढ़ों को जीतकर अनेक लक्ष द्रव्य उपार्जन कर लूँ।"
इस प्रकार विचार कर राजपुत्र ने धन्यकुमार से कहा-"श्रेष्ठी-पुत्र! आपका यह मेंढ़ा हमारे योग्य है। आप जैसे महा-इभ्यों द्वारा इस प्रकार का पशु-पालन प्रशस्त नहीं है। मेंढ़े आदि का खेल राजपुत्रों को ही शोभा देता है, व्यापारियों को नहीं। अतः इस मेंढ़े का जितना मूल्य लगा हो, उतना या फिर यथा-इच्छा इसका मूल्य ग्रहणकर यह मेंढ़ा हमें दे दीजिए।" ।
तब धन्य ने राजकुमार के वचनों को सुनकर विचार किया-"क्योंकि यह मेंढ़े के युद्ध आदि की क्रिया-इभ्यों के पुत्रों के लिए यशस्कारी नहीं है। अतः जो भी इच्छित मूल्य देकर यह ग्रहण करना चाहते हैं, तो मैं दे देता हूँ।"
इस प्रकार विचार कर धन्य ने हँसते हुए कहा-“हे स्वामी! यह मेंढ़ा समस्त लक्षणों से अ-न्यून (युक्त) है। बहुत ही खोज करने पर मिला है। बहुत