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धन्य-चरित्र/42 कि मैं इसका उद्धार करूँगा। कहा भी है
यस्माद् येन मस्तकात् तृणमुत्तारितं, तस्यापि प्रत्युपकारकरणं महदप्युपायकरणे सुदुष्कर, तर्हि सर्वोपकारिणः प्रत्युपकारकरणं कथं भवति।
अर्थात् जिस कारण से जिसके द्वारा मस्तक से तृण भी उतारा जाता है, उसका महान उपायों द्वारा भी प्रत्युपकार करना सुदुष्कर है, तो सर्वोपकारी का प्रत्युपकार तो कैसे किया जा सकता है?
शास्त्रों में बहुत तरह के दान बताये गये हैं, जैसे-स्वर्ण दान, पृथ्वी दान, कन्या दान, रत्न दान आदि अनेक दान पृथ्वी पर दिये जाते हैं, परन्तु समय पर दिये गये अन्न के दान के करोड़वें अंश का भी मोल नहीं किया जा सकता। जैसे कहा भी गया है
क्षुधाक्लीबस्स जीवस्य, पञ्च नश्यन्त्यसंशयम्।
सुवासनेन्द्रियबलं, धर्मकृत्यं रतिः स्मृति।। अर्थात् भूख से पीड़ित जीव के पाँच चीजों का संशय रहित नाश होता है-सुवासना, इन्द्रिय बल, धर्म कृत्य, रति व स्मृति।
अतः किये गये भोजन रूप उपकार के लिए कुम्भकार को अनगिनत लक्ष्मी देकर कृतज्ञ भाव दरसाऊँ, जिससे थोड़ा बहुत उऋण हो पाऊँ।
इस प्रकार विचार करके राजा ने कहा-“हे भद्र! तुम सुखपूर्वक मेरे साथ नगर में आओ। मेरे दिये हुए आवास में रहकर मेरे पास ही मेरे द्वारा आदिष्ट व अर्पित भोगों का भोग करो। वहाँ रहते हुए यदि कोई शिक्षित नागरिक भी तुम्हारे सुनते हुए असंबद्ध प्रलाप करेंगे, तो मेरे द्वारा चौर-दण्ड से दण्डनीय होंगे।"
राजा के ऐसा कहने के तुरन्त बाद ही भूपति को खोजते हुए सामन्त, सचिव आदि चतुरंगिणी सेना से युक्त होकर दक्षिणावर्त्त शंख की पीठ पर सामान्य शंखों की तरह आ गये। राजा को देखकर वे सभी हर्षित हो गये। तब पंकप्रिय के साथ अश्व पर आरूढ़ होकर राजा चतुरंग चमू के साथ अपने पुर की ओर प्रस्थित हुआ।
मार्ग में जाते हुए राजा ने नगर के उपवन में अति रूपवती एक कन्या को कुब्ज-बेर के वृक्ष से बोरों को चुगते हुए देखकर उसको कहा-"हे सुभ्रु! तुम किसकी पुत्री हो?
राजा के इस प्रकार पूछने पर उसने कहा-"हे स्वामी! मैं खक्ख नामक कृषिकार की पुत्री हूँ।"
इस प्रकार सुधा-सिंचित उसकी वाणी अपने कर्ण-सम्पुटों से पी-पीकर