________________
धन्य-चरित्र/344 हुआ। उसकी मृत्यु के ठीक एक वर्ष बाद उसी के पुत्र ने उस बकरे को धन देकर खरीदा और अपने घर लेकर आया। अपने ही घर को देखकर उस बकरे को जातिस्मरण-ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्व का सारा स्वरूप उसे ज्ञात हो गया। तब मन में भयभीत होते हुए देवी के सामने वध के लिए ले जाये जाते हुए वह चलता नहीं। पुत्र के द्वारा जबर्दस्ती ले जाये जाने पर भी नहीं चलता। इसी समय मार्ग में जाते हुए एक साधु ने अपने ज्ञान से सारा वृत्तान्त जानकर उसको प्रतिबोधित करने के लिए एक गाथा कही
खड्ड खणाविय ते छगल! ते आरोविय रुक्खइ अ।
पवत्तिअ जन्नवह अह कांऽ बूबई मुक्क? हे बकरे ! तूने ही खड्डा खोदा। तूने ही वृक्ष आरोपित किये। यज्ञ में वध का प्रवर्तन भी तुमने ही किया। अब क्यों दुःख की निःश्वासें छोड़ रहे हो? । इस प्रकार के मुनि-वचनों को सुनकर साहस करके बकरा चलने लगा, यह देखकर लोग चमत्कृत हो गये। तब विस्मित-चित्त होकर देवीदत्त ने साधु से कहा -"मेरे बकरे को चलानेवाला मंत्र मुझे दीजिए।''
साधु ने पूछा-"क्यों?" तो बाह्मण ने कहा-"पुनः इसका काम भविष्य में भी पड़ सकता है।" साधु ने कहा-“हे भद्र! क्यों अज्ञानतावश प्रलाप करते हो?" बाह्मण ने पूछा-"कैसे?'
साधु ने कहा-"इस बकरे के रूप में तुम्हारे पिता हैं। जातिस्मरण होने के कारण अपना मृत्यु समय सामने जानकर आगे चलने से कतरा रहा है। पूर्व में उसने मिथ्या श्रद्धा के कारण अनेक बकरे मारे, उसी कार्य के फलस्वरूप यह बकरे के रूप में पैदा हुआ। अगर मेरे वचनों पर तुम्हें कोई सन्देह है, तो इसके बन्धन को छोड़ो, जिससे तुम्हें जो धन प्राप्त नहीं हुआ था, क्योंकि तुम्हारे पिता ने बताया नहीं था, वही द्रव्य अब यह बकरा दिखायेगा। तब ये वास्तव में ही तुम्हारे पिता हैं, अन्यथा नहीं।"
यह सुनकर ब्राह्मण ने वैसा ही किया, तब उस बकरे ने जहाँ छिपा हुआ धन पड़ा था, वहाँ खुरो से खुरचकर स्थान दिखाया। खोदने पर धन निकला, जिससे ब्राह्मण को साधु के वचनों पर प्रतीति हुई। इसलिए वह मिथ्यात्व त्यागकर परम श्रद्धावान-श्रावक बन गया और जैन धर्म की आराधना करने लगा।
|| इति देवशर्मा कथा ।। इसलिए हे श्रीपति ! तुम भी देवशर्मा ब्राह्मण की तरह मिथ्यात्व के सेवन से भव परम्परा को ही बढ़ाओगे।"
धनमित्र के वचनों को सुनकर श्रीपति ने मिथ्यात्व को त्यागकर मित्र से कहा-'हे मित्र, अब मैं कौन-सा उपाय करूँ?"
उसने कहा -