Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 430
________________ धन्य-चरित्र/422 एक बेले का तप और किया होता, तो भी ये दोनों मुक्ति पा लेते, क्योंकि अनुत्तर-विमान से भी ज्यादा सुख मुक्ति के बिना और कहीं नहीं है। फिर धन्य व शालि वहाँ आयु समाप्त होने पर विदेह क्षेत्र में सुख से भरे कुलों में उत्पन्न होकर, भुक्तभोगी होकर यथावसर सद्गुरु के संयोग में संयम लेकर कठिन तप के द्वारा क्रिया करके घनघाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान उत्पन्न करके पृथ्वीमण्डल पर अनेकों को प्रबोधित करके अन्त में योग समाधि करके नाम, गोत्रादि अघाती-भवोपग्राही कर्मों का क्षय करके पाँच हृस्व अक्षरों को उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतने काल-मात्र में अयोगिपने को प्राप्तकर, एक समय की अस्पृशद् गति के द्वारा पूर्व प्रयोगादि कारण-चतुष्क न्याय के द्वारा लोकान्त में मुक्ति क्षेत्र को प्राप्त करेंगे। सादि-अनन्त भंग के द्वारा चिदानन्द सुख का अनुभव करेंगे। इन धन्य-शालिभद्र ने अनुत्तर दानादि चारों प्रकार से उत्कृष्ट पद को प्राप्त किया। जैसे - प्रथम तो अनुत्तर दान दिया, क्योंकि अत्यन्त कष्ट में खीर स्वयं उनके लिए खाने के लिए बनायी थी। पहले से साधु को दान देने का कोई भी अभ्यास नहीं था, पर साधु का दर्शन होने से तीव्र श्रद्धा उत्पन्न होने से अपने सभी दुःखों को भूलकर भक्ति-भाव से भरित अंगों द्वारा उठकर-“स्वामी! यहाँ अपने चरण कमल रखिए। यह आहार लेकर हमें अनुग्रहित कीजिए।" इस प्रकार भक्तियुक्त वचनों से साधु को बुलाकर थाल उठाकर एक ही बार मे सारी खीर बहरा दी। पूर्ण मनोरथी उसने सात-आठ कदम साधु के पीछे जाकर पुनः साधु को वंदना की, फिर हर्षित हृदय से पुनः-पुनः अनुमोदना करते हुए घर में आकर थाली के समीप बैठकर अपनी-अपनी माता के आगे भी अवसर न जानकर गाम्भीर्य गुण से युक्त होने से कुछ भी नहीं कहा। ऐसा दान किसी ने भी नहीं दिया। वह उनका अनुत्तर दान था। दूसरा - उनका अनुत्तर तप था, क्योंकि बारह वर्षों के बाद घर में आये हुए उन दोनों को शालि की माता व पत्नियों ने तथा नित्य सेवा करनेवाले सेवकों ने भी नहीं पहचाना। ऐसे दुष्कर महातप से वे तप्त हुए थे। तीसरा - शालि के द्वारा राजा को नमस्कार करने मात्र से आजन्म विलसित अनिर्वचनीय भोगलीला को व्यर्थ करके विचार किया-"अभी भी मेरी पराधीनता नहीं गयी। परवश रहा हुआ सुख भी दुःख रूप ही है। अतः अपने मान का रक्षण करने के लिए तथा स्वाधीन सुख की प्राप्ति के लिए सकल सुर-असुर-नरवृन्दों के द्वारा वन्दित चारित्र को ग्रहण करता हूँ।" इसी प्रकार धन्य ने भी पत्नी के आगे शालि के एक-एक नारी के त्याग को सुनकर, इस कार्य को कायरता पूर्ण बताते हुए, प्रियाओं के नर्मवचन को भी अनुकूल मानते हुए एक साथ आठों पत्नियों का त्याग कर दिया। अनर्गल

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