Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 433
________________ धन्य-चरित्र/425 के लिए व्यापारियों को बुलाकर कहा- "इस माल को ग्रहण करो और यथायोग्य भाव के अनुसार दे दो।" तब सभी व्यापारियों ने एकत्र होकर मंत्रणा की-"नगर में रहे हुए सभी व्यापारियों द्वारा विभाग कर-करके माल ग्रहण किया जाये।" तब धनसार के घर पर भी भाग ग्रहण करने के लिए आमंत्रण भिजवाया। तब धन्य के बड़े भाइयों ने ईष्यादोष के कारण पिता को कहकर भाग ग्रहण करने के लिए धन्य को भेजा। धन्य भी पिता की आज्ञा से वहाँ गया। सभी क्रयाणक पर उसने नजर डाली, उनके मध्य रहे हुए अनेक सैकड़ों कलशों के अन्दर तेजमतूरी भरी हुई थी, जिसे इसने शास्त्र ज्ञान होने से अपने बुद्धि-कौशल से पहचान लिया, परन्तु इन अनेक व्यापार किये हुए क्रयाणकों की उत्पत्ति व निष्पति में कुशल अपने आपको विचक्षण माननेवाले अनेकों व्यापारियों ने भी नहीं पहचाना। वे तो उन कलशों की क्षार-मिट्टी को बिना पहचाने दुष्ट-स्वभाव तथा ईर्ष्या-बुद्धि से मीठे वचनों से संतुष्ट कर वे घड़े धन्य के सिर पर डाल दिये। धन्य ने भी अपने बुद्धि चातुर्य के अतिशय से उनकी दुर्जनता जानकर उनको योग्य उत्तर दिया। उन सभी को प्रसन्न करके सभी व्यापारियों की आँखों में धूल डालकर अनेक सैकड़ों करोडों स्वर्ण बनानेवाली तेजमतूरी के कलशों को गाड़ी में भरकर घर आ गया। यह भी उत्कृष्ट भाग्योदय ही था, और कुछ नहीं। सप्तम- जब श्रेष्ठी की शुष्क वाटिका में एक रात सोया, तो धन्य के उत्कृष्ट पुण्य के प्रभाव से उसी रात्रि में वह शुष्क वाटिका नंदन वन के समान हो गयी और उसकी महती प्रतिष्ठा हुई। यह आश्चर्य भी अनुत्तर पुण्य का सूचक था। अष्ठम- जब कौशाम्बी गया, जब राजा ने मणि की परीक्षा के लिए और उसकी महिमा जानने के लिए तीन दिन तक पटह बजवाया, पर किसी ने स्पर्श नहीं किया। तब धन्य ने इसका स्पर्श किया। फिर राजा के पास जाकर उस मणि को लेकर शास्त्र परिकर्मित बुद्धि व कौशल्य से तथा चतुरता के अतिशय से मणि की जाति, प्रभाव व फल को बताया, उस मणि की महिमा भी समस्त सभ्यजनों के समक्ष थाल में भरे हुए चावलों के ऊपर कबूतरों को छोड़ने के द्वारा कारण सहित दिखायी। सभी सभ्य व राजा भी चमत्कृत हो गये। यह भी उग्र पुण्योदय का सूचक था। इस प्रकार आठ अनुत्तर पुण्यप्राग्भार महा-आश्चर्यकारी थे। तथा ये पाँच महाश्चर्य हुए- जब कौशाम्बी नगरी के पास स्थापित ग्राम में अपने पिता तथा तीनों अग्रजों को छोड़ा, राज्य को उनके अधीन करके राजगृह जाने के लिए सैन्य सहित प्रस्थान किया। तब मार्ग में लक्ष्मीपुर नगर

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