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धन्य-चरित्र/424 भी इन दोनों के मध्य धन्य की विशेष स्तवना करता हूँ, क्योंकि धन्य इस जगतितल पर अनुत्तर पुण्य-प्राग्भारवाला हुआ। जैसे
प्रथम- इसके जन्म के समय नाल का छेदन करके भूमि के अन्दर रखने के लिए भूमि खोदे जाने पर एक लाख से अधिक का निधान प्रकट हुआ यह अनुत्तर पुण्य प्राग्भार का उदय था।
द्वितीय- कुमार अवस्था में उसके पहले कभी व्यापार का उद्यम नहीं किया था, फिर भी क्रय-विक्रय के स्वरूप को नहीं जानते हुए भी प्रथम दिवस अपने बुद्धि कौशल से लाख धन लेकर घर आया, यह भी अनुत्तर पुण्योदय था।
तृतीय- पिता के द्वारा दूसरी बार व्यापार करने की प्रेरणा किये जाने पर सामान्य-हीन जनोचित हुड व्यवसाय करके राजकुमार को जीतकर, दो लाख द्रव्य लेकर घर आया। कोई भी स्वप्न में भी ऐसी श्रद्धा करे कि हुड व्यापार में दो लाख द्रव्य मिल सकता है? यह भी अनुत्तर पुण्य से ही सम्भव हो सकता
चतुर्थ- पिता के द्वारा तीसरी बार व्यापार के लिए भेजे जाने पर दीन-हीन-जनोचित घृणित मृतक की खाट का व्यवसाय करके 66 करोड़ मूल्य के रत्न लेकर घर आया। क्या कोई सोच भी सकता है कि मृतक की खाट के व्यवसाय में 66 करोड़ मूल्य के रत्न मिल सकते हैं? यह भी अनुत्तर पुण्योदय था।
पंचम- अग्रजों को अपने ही द्वारा उपार्जित धन को यथेच्छा भोगते हुए देखकर तथा अपने ऊपर ईर्ष्या करते हुए देखकर वह घर से निकल गया। मार्ग में भूख-प्यास से पीड़ित, श्रान्त खेत के निकट वट वृक्ष के नीचे बैठा, तब खेत के मालिक ने सुभग को देखकर भोजन के लिए निमन्त्रित किया। इसने भी कहा-"किसी का कुछ कार्य किये बिना नहीं खाऊँगा।"
तब क्षेत्रपति ने कहा- "अगर यही प्रतिज्ञा है, तो मेरा यह हल चला लो, तब तक मैं देह-शुद्धि करके आ जाता हूँ। बाद में हम दोनों भोजन करेंगे।"
यह कहकर हल देकर वह चला गया। इसने सात-आठ कदम तक हल चलाया ही था कि हल रुक गया। इसने जोर लगाकर हल को उठाया, तो सहसा ढ़के हुए पत्थर पर दूर से दृष्टि पड़ी और एक विवर दिखायी दिया। अलग करके जब देखा, तो भूमि के अन्दर अनेक कोटि सुवर्ण देखा। उसने वह धन खेत के स्वामी को दे दिया, पर मन में लोभ नहीं किया। फिर अत्याग्रह से भोजन करके धन त्यागकर आगे चल दिया। यह भी महान पुण्योदय ही था।
षष्ठ- राजा ने प्रवहण में रहे हुए स्वामी-रहित माल को ग्रहण करने