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धन्य-चरित्र/426 में राजपुत्री के द्वारा वन में जाकर अपनी बुद्धि व चातुर्य के अतिरेक से राग द्वारा मृगी को बुलाकर अपने कण्ठ से हार निकालकर उसके कण्ठ में पहना दिया गया और घर में आकर प्रतिज्ञा की कि जो मनुष्य इस मृगी को राग से बुलाकर उसके कण्ठ से हार निकालकर मेरे कण्ठ में पहनायेगा, वह मेरा पति है।
यह प्रतिज्ञा सभी को विदित थी। पर उसको पूर्ण करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं था। तब वहाँ आये हुए धन्य ने वन में जाकर वीणा वादनपूर्वक राग से वन में रहे हुए समस्त हरिणों के समूह को बुलाकर सैकड़ों हरिणों से परिवृत हरिण-समूह को अनेक लोगों के साथ चतुष्पथ मार्ग से 36 राजकुलों से उपशोभित, अनेक आयुधों से युक्त हजारों सेवक-वृन्दों से सेवित राजसभा में लेकर आया। ये हरिण बहुत दूर से ही पुरुष मात्र को देखते ही भाग जाते थे। वे अत्यन्त जनाकुल सभा में मनुष्यों के पास से गुजरते हुए भी राग में लीन चित्तवाले होने से कहीं पर भी भागे नहीं। फिर उन्हें के मध्य आयी हुई उसी हरिणी के गले से हार निकालकर धन्य ने कन्या के कण्ठ में डाल दिया। तब तत्क्षण कन्या ने धन्य के गले में वरमाला डाल दी। उसके बाद उसी नगर में अन्य तीन कन्याओं के साथ भी पाणिग्रहण किया। यह अत्यन्त कला कौशल
था।
__द्वितीय- धन्य ने बाल्यकाल में भी सहायक नहीं होने पर भी अपने बुद्धि की कौशलता से वचन आदि की चतुरता से अनेक सैकड़ों-करोड़ों परिमित धन उपार्जित किया और अद्वितीय राज-सम्मान प्राप्त किया। धन्य द्वारा उपार्जित धन को समस्त कुटुम्ब ने भोगा, विशेष रूप से तीनों अग्रज भाइयों ने तो अपने-2 चित्त की अनुकूलता से यथेच्छापूर्वक निःशंक होकर भोगा, पर उसका लेशमात्र भी शल्य नहीं था, फिर भी वे तीनों भाई धन्य के ऊपर अत्यधिक ईर्ष्या रखते थे। फिर ईर्ष्या करते हुए भाइयों को जानकर भी धन्य ने उन पर थोड़ा भी कषाय नहीं किया। पर सज्जनता का स्वभाव होने से धन्य ने अपने ही दोषों का विचार किया-"अहो! ये मेरे अग्रज हैं, मेरे पूज्य हैं, मुझे देखकर मेरे दुष्कर्मों के उदय के कारण मुझसे ईर्ष्या करते है। ईर्ष्या होने पर मन कषाय के उदय से जलता है, कषाय द्वारा अन्तर के जलने से कहीं भी क्षति प्राप्त नहीं होती और अरतिवालों को सुख कहाँ? अरे! इन सबका कारण मैं ही हूँ| मैं तो इनकी सेवा करने के योग्य हूँ। इनकी भक्ति सेवा आदि करके येन-केन-प्रकारेण इन्हें प्रसन्न करना चाहिए, वह तो यथाशक्ति मैं करता ही हूँ, परन्तु उनकी ईर्ष्या तो बढ़ती ही जाती है। पूज्यों व वृद्धजनों के लिए दुःख का कारण बनना न्याय-विज्ञों के लिए उचित नहीं है। अतः अब मुझे यहाँ नहीं