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धन्य-चरित्र/430 जयः श्री जैनधर्मस्य श्रीसङ्घस्य च मङ्गलम्। वक्तृणां मङ्गलं नित्यं, श्रोतृणां मङ्गलं सदा।।1।।
श्री जैन धर्म की जय हो, श्री संघ का मंगल हो, वक्ताओं का भी नित्य मंगल हो तथा श्रोताओं का भी सदा मंगल हो।
अब पद्यमय ग्रन्थ के कर्ता की प्रशस्ति पद्य के माध्यम से कहते हैं
यस्यैतानि फलानि दिव्य विभवोद्दामानि शर्माण्यहो! मानुष्ये भुवनाद्भुतानि बुभुजे श्री धन्य शालिद्वयी! __ देवत्वे पुनरिन्दुकुन्दविशदाः सर्वार्थसिद्ध श्रियः सोऽयं श्री जिनकीर्तितो विजयते श्रीदानकल्पद्रुमः ।।
अहो! दिव्य वैभव तथा उद्दाम सुख रूपी इन फलों को त्रिभुवन में अद्भुत श्री धन्य व शालिभद्र ने मनुष्य भव में भोगा! पुनः इन्दु व कुन्द के पुष्प की तरह विशद धवल श्री को सर्वार्थसिद्ध में देवत्व के रूप में भोगा, वह यह श्री जिन-कीर्तित श्रीदान रूपी कल्पवृक्ष विजय को प्राप्त हो।
||श्रीमद् तपागच्छ अधिराज श्री सोमसुन्दर सूरि के पट्ट-प्रभाकर शिष्य श्री जिनकीर्ति सूरि रचित-पद्यबद्ध श्री धन्यचरित्र-शालि श्रीदान रूपी कल्पवृक्ष का महोपाध्याय श्री धर्मसागर गणि के वंश में महोपाध्याय श्री हर्षसागर गणि के प्रपौत्र महोपाध्याय श्री ज्ञान सागर गणि शिष्य द्वारा अल्पमति से ग्रथित गद्य-रचना-प्रबन्ध में श्री धन्यशालि की सर्वार्थसिद्धि प्राप्ति का वर्णन नामक नौवाँ पल्लव पूर्ण हुआ ।।
।। श्री धन्य चरित्र समाप्त ।।