Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 437
________________ धन्य - चरित्र / 429 आरसी क्या? शालि के तो 32-32 प्रियाएँ हैं। आपके तो आठ ही पत्नियाँ हैं । अगर आप वाकई वीर हैं, तो एक ही बार में हम आठों का परित्याग क्यों नहीं करते?" प्रिया के इन वचनों को सुनकर धन्य ने हर्षित होते हुए कहा -“अहो ! तुमने बहुत ही अच्छा कहा । कुलीन स्त्रियों के वाक्य ऐसे ही होते हैं, जो अवसर आने पर हितकारी वचन ही बोलती हैं। अतः मैंने आज ही आठों प्रियाएँ त्याग दीं ।" यह कहकर तत्क्षण प्रियाओं को त्यागकर चारित्र ग्रहण करने के लिए उद्यत हो गया। प्रियाओं को भी प्रतिबोध देकर उन्हें चारित्र की ओर उन्मुख किया । शालि के विलम्ब को भी छुड़वाया । यह भी महा - आश्चर्य ही था । इस प्रकार मैंने धन्यमुनि व शालिभद्र मुनि का चरित्र संस्कृत भाषा में गद्य -बंध रूप में लिखा, वह अपना चातुर्य दिखाने के लिए नहीं, न ही पाण्डित्य दिखाने लिए और न ही ईर्ष्यादि किसी अन्य कारण से, बल्कि जो आधुनिक संयमी - गण हैं, उनके मध्य में जो कोई प्रज्ञावान हैं, शब्दादि शास्त्रों में कुशल हैं, वे सभी शास्त्रों का निर्वाह करते हैं, पर वे तो बहुत थोड़े हैं और जो कोई कुछ पढ़कर, कुछ सुनकर, खण्ड - पाण्डित्य से दृप्त हैं, वे पूर्वाचार्यों द्वारा कृत पद्यमय ग्रन्थों का यथा -मति कष्टपूर्वक निर्वाह करते हैं। जो बहुत सारे अवशेष हैं, वे तो पद्यमय ग्रन्थ को देखने में ही असमर्थ हैं, तो वाचन का तो कहना ही क्या? इसी प्रकार परिपक्व गद्यमय, जो पूर्व सूरियों द्वारा ग्रथित हैं, उनका वाचन करने में भी असमर्थ हैं। वे लोक - भाषामय बालावबोध - कृत ग्रन्थों को पढ़ने में लज्जा महसूस करते हैं। अहो ! इतने वृद्ध होकर भी लोकभाषा में ही पढ़ते हैं। इस प्रकार लज्जित होते हुए उनके शिष्य - प्रशिष्य - गुरु भ्राता आदि के द्वारा प्रार्थना किये जाने से यह सरल रचनामय चारित्र रचा गया है। बालभद्रक जानते हैं- ये भी संस्कृत के भाषामय शास्त्र को व्याख्यान में पढ़ेंगे, इसलिए मेरा द्वारा बाल लीला की गयी है, अन्य हेतु से नहीं । अतः जो सज्जन होते हैं, उनके पाँवों को वंदन करके प्रार्थना करता हूँ- जो इसमें अशुद्ध - अशुद्धतर हो, तो मुझ पर महती कृपा करके शोधने योग्य है, जिससे मुझ बालक की हँसी न हो और प्रतिष्ठा भी बढ़े। अथवा तो प्रार्थना से क्या ? क्योंकि वे ही सज्जन अपने सज्जन स्वभाव से पुस्तक हाथ में लेकर बाल - विलसित देखकर, थोड़ा-सा हँसकर स्वयं ही शुद्ध करेंगे। जो इस ग्रन्थ- संदर्भ में अज्ञानवश से अथवा मिथ्यात्व के उदय से जिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा हो, तो श्रीमद् अरिहन्तादि पंच-साक्षी से तीन प्रकार की शुद्धि द्वारा मेरा मिथ्या - दुष्कृत होवे । मेरे द्वारा तो भद्र-भक्ति के वश में मुनियों के गुण यथामति गाये गये हैं, इसका फल हो, तो मेरी श्री जिनधर्म में हठभक्ति होवे ।

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