Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 435
________________ धन्य-चरित्र/427 रहना चाहिए। मेरे जाने पर ही ये लोग यहाँ सुख से रहेंगे, क्योंकि कारण के चल जाने पर कार्य उत्पन्न नहीं होता। अतः मुझे अब देशान्तर चले जाना चाहिए।" यह विचारकर रात्रि में अरति-द्वेष रहित सहज वृत्ति से मुनि की तरह घर से निकल गया, मन में दुखित भी नहीं हुआ कि मेरी भुजाओं से उपार्जित धन को भोगते हुए दुर्जन मेरे ऊपर ही ईर्ष्या करते हैं- इत्यादि भाव मन में भी नहीं आये। ऐसे सज्जन कौन होते हैं? फिर वह उज्जयिनी चला गया। वहाँ तालाब में रहे हुए स्तम्भ को लपेटने की चतुरता से मंत्री-पद प्राप्त किया। पुनः उसी प्रकार की सुख-सुम्पति की लीला लहर प्राप्त की। कितने ही समय बाद माता-पिता व अग्रज दुष्कर्मों के उदय से दीन अवस्था का अनुभव करते हुए तथा घूमते हुए वहाँ आ गये। धन्य ने उन्हें अपने महल के गवाक्ष से देखा। देखकर मन में अत्यन्त दुःखी हुआ- अहो! अहो! मेरे पूज्य ये लोग ऐसी दुर्दशा को प्राप्त कर दुःख का अनुभव कर रहे है। फिर सेवकों द्वारा शीघ्र ही घर के अन्दर बुलाकर उठकर अपने पिता व भाइयों के पैरों में गिर गया। विनय युक्त मीठे वचनों द्वारा उन्हें संतृप्त करके स्नानादि शुश्रूषा करके, पूज्य स्थान पर बैठाकर सारा धन-धान्यादि उनको सौंप दिया, स्वयं सेवा करनेवाला सेवक बनकर उनकी सेवा करने लगा। इस प्रकार का महा-आश्चर्यकारी चारित्र धन्य का ही है, अन्य का नहीं। इस प्रकार कषायों की मन्दता, विनय की प्रगल्भता महापुरुष की ही होती है, अन्य की नहीं। इस प्रकार चौथी बार अमित धन देकर अम्लान मन से वहाँ से निकल गया। जहा-जहाँ भी वह जाता, वहाँ-वहाँ उसे अतुल सम्पत्ति मिलती। पीछे उसके भाई आपत्ति की विडम्बना से दुर्दशा को प्राप्त कर आ जाते थे। धन्य भी उनको देखकर शीघ्र आकर बहुमानपूर्वक घर पर ले जाकर विनयपूर्वक सर्वस्व उनके हाथ में दे देता था। इस प्रकार महा-आश्चर्यकारी माया-रहित प्रकृति, क्रोध, मान, माया, लोभ की रहितता, उचित गुणों से युक्त भद्र स्वभाव के बिना धन्य कभी-भी प्रसिद्ध नहीं होता। यह दूसरा महा आश्चर्य था। तृतीय- पुण्य से ही 500 गाँवों का अधिपत्य प्राप्त किया, पूर्वोक्त अपरिमित लक्ष्मी प्राप्त की, उससे भी ज्यादा राज-सम्मान प्राप्त किया, उससे भी ज्यादा सर्व सम्पत्तिवान, गर्वहारक, चिन्तामणि रत्न घर में शोभित होता था, फिर भी संतोष की बहुलता से श्रीमद् जिनवचन से परिणत-बुद्धि होने से उसके मन में संकल्प–मात्र भी कभी उदित नहीं हुआ, कि मैं भी स्वर्ण को निर्माल्य रूप से करूँ, शालि के तो रोज 33 मंजूषा प्रातःकाल में देवलोक से उतरती थी। यह तो स्वयं 66 मंजूषाओं को उतारने में समर्थ था, पर जिनवचनों के

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