Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 427
________________ धन्य-चरित्र/419 घर आये हुए पुत्र व जामाता को नहीं पहचाना। प्रतिदिन जो भी याचक या साधु भिक्षा के लिए आता है, उनको मैं सम्मानपूर्वक निमन्त्रित करती हूँ, तब वह साधु निर्दोष आहार को ग्रहण करता है और धर्माशीष देकर जाता है। पर मुझ अभागिनियों में शिरोमणि, मूर्ख शिरोमणि ने आज तो वह भी नहीं दिया। साधु-को दान देने योग्य आहार विद्यमान होने पर भी हा! हा! मैंने नहीं दिया। न ही किसी से दिलवाया। अगर सामान्य साधु की बुद्धि से भी आहार दिया होता, तो भी 'अचिन्तितं स्थाने पतितं" इस न्याय से अच्छा ही होता, पर वह भी नहीं किया। हा! मैंने क्या किया! हाय! मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी? हा! मेरी साधु-दर्शन की वल्लभता कहाँ चली गयी? हाय! मेरी अवसरोचित बात-चीत, सुख–प्रश्न, आलापादि चतुरता कहाँ चली गयी? जो कि मैंने उन साधुओं को कुछ भी नहीं पूछा। आप दोनों किसके शिष्य हैं? पहले किस गाँव के वासी हुआ करते थे? आपको संयम ग्रहण किये हुए कितने वर्ष हो गये? अब आपके माता-पिता, भाई-बान्धव आदि हैं या नहीं? अभी किस गाँव से पधारे हैं? आपका मेरे पुत्र शालि मुनि से तथा मेरे दामाद धन्य-मुनि से परिचय है या नहीं? इत्यादि भी मैंने नहीं पूछा। अगर मैंने ऐसे प्रश्न किये होते, तो सभी ज्ञात हो जाता। हाय! मेरी वचन-कुशलता कहाँ गयी। हाय! मैंने मिथ्यात्व का बन्ध कर लिया, जो कि जड़-अन्तःकरण द्वारा घर में आये हुए साधुओं की वंदना भी नहीं की। कुलोचित व्यवहार भी मैं भूल गयी। जब कोई भी आँगन में क्षण-मात्र के लिए भी ठहरता है, तब सेवकों द्वारा सूचित किये जाने पर क्षण मात्र रुकने पर कुछ न कुछ पूछने का कारण होगा' इस प्रकार बुद्धि मन में उत्पन्न होती है। पूछने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है। पर इन दोनों के आने पर कुछ भी नहीं सूझा। कुछ भी उचित कार्य नहीं किया। केवल मात्र अनादर करके हाथ में आयी हुई देव-मणि गँवा दी। हाय! इन सभी कुल-वधुओं का मति-कौशल्य भी कहाँ चला गया, जो अपने पति को भी नहीं पहचान पायीं। बहुत दिनों से परिचित सेवक भी इन दोनों को पहचान नहीं पाये। सभी को एक साथ एक ही समय में बुद्धि का व्यामोह पैदा हो गया। बिना माँगे वांछित अर्थ देनेवाले बिना बुलाये घर आये हुए, इस लोक व परलोक में वांछित वस्तु देनेवाले, अतुल पुण्य के एकमात्र कारण रूप, बहुत दिनों से तथा बहुत से मनोरथों द्वारा वांछित स्वयं सामने चलकर आये, पर न तो आलाप किया, न वंदना की, न प्रतिलाभित किया, न पहचाना और वे लौट गये। मुख तक आया हुआ निवाला छिन जाने के न्याय से तथा गंवार के हाथ आये चिंतामणि रत्न से कौए को उड़ाने के न्याय से मेरे सभी मनोरथ विफलता को प्राप्त हुए। पुनः भविष्य में वैसे मनोरथ पूर्ण करने की आशा नहीं

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