Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 425
________________ धन्य - चरित्र / 417 इस संसार में विचित्र कर्मों का अनुभव महाश्चर्यकारी है । कहाँ तो मैं पूर्वभव में सद्-असद् के विवेक से रहित गँवार ग्रामीण था, पुनः कहाँ इस जन्म में गुण समूह के गौरव - मन्दिर रूप अवसर पर योग्य करने व कहने में होशियार इस भव की नगरीयता ? पूर्वजन्म में तो सम्पूर्ण आपदाओं का निवास रूप में पशुदास था, पुनः इस जन्म में मैं राजा को क्रयाणक रूप में जानता हूँ । पूर्वजन्म में मैं जीर्ण, खण्डित, शरीर को ढ़कने में भी असमर्थ वस्त्र को कठिनाई से प्राप्त कर पाता था, पर इस जन्म में सवा-सवा लाख मूल्य के रत्नकम्बल के दो-दो टुकड़े करके अपनी प्रियाओं को दिये और उन्होंने भी पाँव पोंछकर कचरे की पेटी में पटक दिया। पूर्व जन्म में तो मेरे पास चाँदी के भी आभूषण नहीं थे, पर इस जन्म में तो विविध रत्न - जटित स्वर्णाभूषणों को फूलों की माला की तरह कचरा समझकर प्रतिदिन त्याग देता था । पूर्व जन्म में तो रूपया - - पैसा आदि हाथ से स्पर्श तक नहीं किया, पर इस जन्म में दीनार - रत्नादि के ढ़ेर के ढ़ेर होने पर मैं शुद्धि करने में असमर्थ था । अहो ! भव-नाटक की विचित्रता ! अहो! इस भव-नाटक में कर्मराजा का शासन होने से मोह रूपी नट द्वारा ये देहधारी विविध वेषों में नाटक करते हैं। जिनागम के हार्द को जाने बिना कोई भी पुरुष उबर नहीं सकता, इसलिए मैं जगत द्रोही कर्म को उत्कृष्ट मल्ल की तरह पण्डित-वीर्योल्लास के बल से जीतकर शीघ्र ही अप्राप्तपूर्व जयपताका को ग्रहण करूँगा। जिससे मेरा किया हुआ उद्यम सफल हो।" इस प्रकार विचार करके महा- सत्त्वाधिक धन्य के साथ श्रीमद् वीर जिनेश्वर के पास जाकर नमन करके विनंति की - " स्वामी! तपस्या के बिना यह अनादि शत्रु शरीर से बाहर नहीं निकलेगा । जीव-जीव से जाता है - इत्यादि भगवान को सर्व-विदित ही है । अतः इसको रिश्वत देने से क्या ? अगर आपकी आज्ञा हो, तो आपकी कृपा से आराधना के द्वारा जय-पताका का वरण करें ।" श्री जिनेश्वर देव ने कहा - "जैसा आत्म - हित के अनुकूल हो, वैसा ही करो। पर प्रमाद मत करो। " इस प्रकार जिनाज्ञा प्राप्त करके अड़तालीस मुनियों तथा गौतम गणधर के साथ वे वैभारगिरि पर चढ़े। पर्वत के ऊपर शुद्ध निरवद्य, पर्वतीय शिलापट्ट को प्रमार्जित करके आगमन की आलोचना करके श्रीमद् गौतम गुरु के पास विधि-पूर्वक 32 द्वारों द्वारा आराधना क्रिया करके उन दोनों मुनियों ने पादपोपगमन अनशन को स्वीकार किया । अड़तालीस मुनि भी परिकर्मित शुभध्यान से युक्त होते हुए समता में लीन एक चित्त से समाधिमग्न हो गये । उधर भद्रा ने पुत्र व जामाता के आगमन - उत्सव के लिए दासों द्वारा शीघ्र ही स्वास्तिक -तोरण, रत्नवल्ली आदि की रचना रूप शोभा के द्वारा महल को अद्भुत रूप में सजाया । फिर भद्रा के साथ कृशांगी चन्द्रकला की तरह

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