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धन्य-चरित्र/415 आदि विविध तप करते हुए ये दोनों मुनि बारह वर्षों तक यावत् स्थविरों के साथ विविध देशों में विहार करके पुनः श्रीवीर प्रभु के पास आये।
श्रीवीर प्रभु भी भू-मंडल को पवित्र करते हुए एक बार राजगृह पधारे। देवों द्वारा अष्ट महाप्रातिहार्य आदि की रचना की गयी। उस दिन उन दोनों मुनियों के मासखामण का पारणा था। पर बिना किसी अहंकार के बिना उत्सुक हुए भिक्षा की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए श्रीवीर प्रभु के पास आकर उन दोनों ने विनयपूर्वक प्रणाम किया।
तब श्रीवीर प्रभु ने शालिभद्र को सादर देखते हुए कहा-“हे वत्स! आज तुम्हारे पारणे का कारण तुम्हारी जननी होगी।"
इस प्रकार के श्री वीर प्रभु के वचनों को सुनकर श्रीवीर प्रभु के पास से निकलकर धन्य व शालि मुनि ने राजगृही मे प्रवेश किया। श्रीवीर प्रभु के वचनानुसार अन्य स्थान को छोड़कर 'श्रीवीर प्रभु के वचनों में क्या सन्देह?' इस प्रकार निर्धारित करके भद्रा माता के आवास पर गये। वहाँ जाकर दोनों ने धर्माशीष दी, पर न उच्च स्वर में, न सादरपूर्वक। फिर अन्य भिक्षाचरी में योग्य प्रांगण में न जाकर वहीं खड़े रहे-प्रतिक्षण कृत वीर वचन के सत्यापन के लिए क्षण भर ठहरकर एक पग भी आगे नही रखा। केवल सर्वार्थसिद्धि को देनेवाले मौन को ही खींचे रखा।
इधर भद्रा विचार करने लगी-"मेरा भाग्य आज भी जागृत है कि पुत्र तथा दामाद दोनों ही श्रीमद् जिनेश्वर के साथ पधारे है। अतः जाकर नमन करके अति भक्तिपूर्वक आज निमत्रित करूँगी। वे दोनों पधारेंगे, तब प्रसन्नता से भक्त-पान द्वारा प्रतिलाभित करूँगी। पूर्व में संसार अवस्था में जो विविध रस-द्रव्य-संयोग से निष्पन्न विभिन्न प्रकार की रसोई से पोषण किया था, वह तो ऐहिक मनोरथ से साध्य संसार–परिभ्रमण का फल–मात्र था। अब तो जो भक्तिपूर्वक अन्न-पानादि के द्वारा पोषण करूँगी, वह उभय लोक में सुखावह तथा क्रमपूर्वक मुक्तिपद को प्राप्त करानेवाला होगा।
इस प्रकार विचार करते हुए भद्रा ने हर्षाश्रु से रुद्ध आँखें होने से उन दोनों को नहीं देखा। तप रूपी लक्ष्मी के ऐश्वर्य से रूप के परावर्तित हो जाने से शालिभद्र के दृष्टिपथ पर विद्यमान रहने पर भी उसकी पत्नियों ने भी नहीं पहचाना।
फिर भी श्रीवीर प्रभु के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए क्षण भर खड़े रहकर व्रत में रहे हुए आचार में पारंगत उन दोनों ने वहाँ से प्रस्थान कर दिया, पर बुलाने का विकार नहीं दिखाया।
श्री वीर प्रभु-वचनों में हठ प्रतीति होने से दूसरे किसी स्थान की आकांक्षा नहीं करते हुए शम-गुण से युक्त होते हुए वे दोनों मुनि गोचरी चर्या