Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 421
________________ धन्य-चरित्र/413 का रंग! अहो! इसकी उदासीनता! अहो! इसकी संसार से सहसा पराङ्मुखता! अहो! इसकी संयम में उत्साहपूर्वक तैयारी! अहो! इसकी सुरलोक की ऋद्धि की उपमा वाले विस्तार में निरभिलाषा! अहो! इसकी निरुपम प्रज्ञा कुशलता! इसका जन्म धन्य है। इसका अन्वयार्थ सूचक नाम भी धन्य है। धन्य है इसकी युवावस्था में व्रत लेने की शक्ति! धन्य है इनका पति-पत्नी संयोग! धन्य है इनका निर्विघ्नकारी धर्मोदय! धन्य है इसकी कुशलानुबंधी पुण्य की प्रगल्भता! धन्य है इसका निरुपम लोकोत्तर भाग्य! जो तीन जगत के नाथ श्रीमद् वीर प्रभु के हाथ से दीक्षा ग्रहण करेगा। धन्य है इसका जीवन! धन्य है आज हमारा भी दिवस! धन्य है हमारा भी जन्म! जो धर्ममूर्ति धन्य के दर्शन हुए। ऐसे व्यक्ति का तो नाम ग्रहण करने मात्र से पाप विफल हो जाते हैं।" इस प्रकार स्तुति करते हुए नागरिक हजारों बार प्रणाम करने लगे। इस प्रकार नागरिकों से प्रशंसित शब्दों को सुनता हुआ धन्य गुणशील चैत्य वन को संप्राप्त हुआ। उधर नागरिकों व घर के अनुज सदस्यों के मुख से यह सब सुनकर लीलाशाली शालिभद्र संवेग भाव से व्रत में औत्सुक्य को प्राप्त हुआ। फिर माता के समीप जाकर युक्ति से समझाते हुए माता को प्रत्युत्तर देने में असमर्थ कर दिया। इससे पहले धन्य की वचन-युक्तियों से वह शिथिल तो हो ही गयी थी, पुनः शाली के व्रत-ग्रहण के अभिप्राय को निश्चय जानकर कहा-"वत्स! जो अपने आशय को पूर्ण करने में हठ को ग्रहण कर एकान्त रूप से घर से पराङ्मुख हो चुका हो, उसे मैं क्या कहूँ? जो तुम्हे अच्छा लगे, वही करो। तुम और तुम्हारे बहनोई का एक आशय हो जाने पर मेरी क्या शक्ति? तुम दोनों अपने चिंतित आशय को पूर्ण करो।" इस प्रकार बोध को प्राप्त माता की अनुज्ञा ग्रहण कर, शीघ्रता से पत्नियों को छोड़कर, विष-मिश्रित अन्न की तरह भयंकर भोगों को छोड़कर व्रत ग्रहण करने के उद्यम में तैयार होने लगा। उसके बाद श्री श्रेणिक राजा तथा गोभद्र देव ने अपूर्व व्रतोत्सव किया और शालिभद्र भी जिनेश्वर श्री वीर प्रभु के पास पहुंचा। अब वे दोनों समवसरण में आकर अभिगमपूर्वक श्री जिनेश्वर को नमन करके बोले-“हे भदन्त! यह लोक जरा, मरण के द्वारा आदीप्त हो रहा है, प्रदीप्त हो रहा है, लोक आदीप्त-प्रदीप्त हो रहा है। जैसे-कोई एक गाथापति घर के जलने पर विचार करते हुए जो अल्प भार व बहुत मूल्य वाले हिरण्य-रत्नादि हैं, उन्हें स्वयं एकान्त में छिपा देता है। यह मेरे द्वारा निष्काशित होता हुआ पीछे या पहले लोक में हित के लिए, सुख के लिए, क्षमा के लिए आनेवाले सम्पूर्ण काल में होगा। इसी प्रकार मेरा भी एकमात्र अद्वितीय आत्मरूपी भाण्ड

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