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धन्य-चरित्र/414 इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम है, मेरे द्वारा इसे निकाले जाते हुए संसार का व्युच्छेद होगा। अतः हे देवानु प्रिय! मैं इच्छा करता हूँ कि आप स्वयं ही मुझे प्रव्रजित करें। स्वयमेव मुण्डित करें। स्वयमेव प्रत्युपेक्षणा आदि ग्रहण करायें। स्वयमेव शिक्षापित करें अर्थात् सूत्रार्थ ग्रहण कराकर शिक्षित करें। स्वयंमेव मुझे आचार अर्थात् ज्ञान आदि विषय के अनुष्ठान रूप काल-अध्ययनादि, गोचर-भिक्षाटनादि, विनय, वैनयिक अर्थात् विनय का फल रूप कर्मक्षय आदि, चरण अर्थात् व्रतादि, करण अर्थात् पिण्ड विशुद्धि आदि, यात्रा अर्थात् संयमयात्रा और उसके लिए ही आहार-मात्रा- इन सबकी वृत्ति अर्थात् वर्तन आदि
सिखायें ।
___ इस प्रकार सिद्धान्त-प्रसिद्ध-विज्ञप्ति के द्वारा प्रार्थना की। तब श्रीमद् वीर ने कहा-"जिससे आत्महित हो, वैसा ही करो, उसमें देर नहीं करनी चाहिए।"
इस प्रकार जिनाज्ञा को प्राप्त करके दोनों ही ईशानकोण में अशोक वृक्ष के नीचे गये। वहाँ जाकर स्वयमेव आभरण उतारे, जिन्हें कुलवृद्ध स्त्रियों ने धवल वस्त्र के अन्दर ग्रहण किये और बोली-“हे पुत्रों! तुम दोनों उत्तम कुल में जन्मे हो। यह व्रत-पालन अति दुष्कर है। गंगा-प्रवाह के सम्मुख जाने के समान है। असिधारा के ऊपर चलने के समान है। लोहमय चने चबाने के समान है। भाले की अग्रनोक से आँखें खुजलाने के समान है। अतः हे पुत्रों! इस अर्थ में जरा भी प्रमाद मत करना।" इस प्रकार बोलती हुई तथा अश्रुओं को गिराती हुई वे एकान्त में चली गयीं।
फिर उन दोनों ने अपने-अपने मस्तक का पंचमुष्टि लोच स्वयं किया। फिर श्री श्रेणिक, अभय आदि ने वेष प्रदान किया। उस वेश को पहनकर वे दोनों वीर प्रभु के निकट आये। तब प्रभु महावीर ने उन दोनों को दीक्षा प्रदान की। फिर सुभद्रादि आठों को दीक्षा देकर आर्या महत्तरिका के पास उनको रखा। वहाँ वे ग्रहण-आसेवनादि शिक्षा सीखने लगीं।
उधर वे दोनों पंच महाव्रतों को शिक्षा-पूर्वक लेकर देवेन्द्र-नरेन्द्रादि से श्लाघित महामुनि हो गये। श्रीमद् वीर द्वारा सुविहित स्थविरों के पास उनको रख दिया। फिर श्रेणिक-अभयादि परिषद जिनेश्वर प्रभु को नमन करके सभी साधुओं को वन्दन करके दोनों मुनियों की श्लाघा करती हुई लौट गयी। अब वे दोनों स्थविरों के पास ग्रहण शिक्षा व आसेवन शिक्षा को अप्रमत्त भाव से सीखते हुए स्थविरों के साथ चिरकाल तक पृथ्वी मण्डल पर विचरण करते रहे।
ज्ञ-परिज्ञा से सम्पूर्ण 11 अंगों के सूत्रार्थ का अध्ययनकर गीतार्थ हो गये। प्रत्याख्यान परिज्ञा से तीव्र तप को तपते हुए शीघ्र ही मुनि पुंगव बन गये। अप्रमत्त भाव से इच्छा का निरोधन करते हुए एक-दो-तीन-चार मासक्षमण