Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 419
________________ धन्य-चरित्र/411 नहीं छोड़ेंगी। जो हमें संयम ग्रहण करने से रोकेगा, उसे हमारा शत्रु ही जानना चाहिए। कदाचित् हमारे स्वामी विलम्ब करें, पर फिर भी हम देर नहीं करेंगी। संयम की एकमात्र इच्छा रखनेवाले भाई को भी नहीं रोकना चाहिए ।" यह कहकर वह अपने घर आ गयी । भद्रा तो स्नेह से मोहित होती हुई जहाँ धन्य था, वहाँ आकर बोली - "हे भद्र! पुत्र तो दुःख देने के लिए तत्पर है ही, उससे भी पहले जले हुए छाले को फोड़ने के तुल्य घर को त्यागने के लिए आप भी तैयार हो गये । पर मेरी चिन्ता किसी ने नहीं की कि यह वृद्धा क्या करेगी? किसके आश्रय में रहेगी? निर्दोषनिरपराध इन सुकुल- उत्पन्न 32 नारियों को कौन पालेगा?" इस प्रकार सास के करूणा भरे वचन सुनकर धन्य ने कहा- "इस जगत में कौन किसको पालता है ? सभी को अपने द्वारा कृत पुण्य ही पालता है, सभी संसारी जन अपने-अपने स्वार्थ से स्नेह करते हैं। पर परमार्थ की अपेक्षा करनेवाले एकमात्र साधु ही हैं। उनके बिना अन्य कोई नहीं है । आप स्वार्थ पूर्ति के लिए पुत्र के व्रत-ग्रहण में अन्तराय कर रही हैं, पर आपने कभी यह चिन्ता की कि मेरा पुत्र अविरति के द्वारा विषयों का सेवन करके चतुर्गति में भ्रमण करेगा, नरकादि में अत्यन्त कठोर विपाकों को सेवन करते हुए दुःखित होगा ? माता - पुत्र का सम्बन्ध तो एक भव का है, पर उसका विपाक तो अनेक भवों में असंख्य काल तक व्यथित करता रहेगा। इस संसार में इतने काल तक परस्पर सभी सम्बन्ध विनिमय से अनंत बार हुए हैं। बहुत बार विषयों का उपभोग किया, वह सब देखकर उसने और आपने परम हर्ष प्राप्त किया, पर उसके फल को भोगने के समय आप उसका उद्धार करने मे समर्थ नहीं हैं और वह भी आपका उद्धार करने में समर्थ नहीं। इस जगत में अतिप्रिय भी यह पुत्र आपके द्वारा अपने ही हाथों से अनन्त बार मारा गया है। इसने भी आपको अनन्त बार मारा है । अतः स्नेह कर-कर के क्यों दुःखी होती हैं? इस प्रकार का दुःखदायक सम्बन्ध तो अनन्त बार हो चुका है । पर इस प्रकार श्री जिन चरण कमल में सनाथ बनकर चारित्र ग्रहण करने तथा आपकी आज्ञा मांगने का संयोग तो कभी नहीं हुआ। वह संयोग आप दोनों को भाग्य से ही मिला है। आप उसे सफल क्यों नहीं करतीं? इस प्रकार क्यों नहीं सोचती कि मेरे द्वारा जना गया पुत्र अर्हन्त की सभा में सुर-असुर - नरेन्द्रगणों के देखते हुए पंच- साक्षीपूर्वक चारित्र को ग्रहण कर रहा है? मैं द्रम्मक के समान नहीं हूँ, जो सम्मुख आये हुए राज्य का त्याग कर दूँ। मेरा पुत्र तो परम अभयदाता श्री वीर प्रभु का हस्त - दीक्षित शिष्य हो रहा है। इसका क्या डर? एक ही झटके में संसार - सागर में तिर जायेगा । यहाँ क्या अशुभ होने को है, जो आप दुःख से आर्त्तध्यान करती हुई खेदित हो रही हैं? श्री जिनधर्म की जानकार होती हुई भी इस प्रकार के अशुभ वचन कैसे अपने मुख से निकाल

Loading...

Page Navigation
1 ... 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440