Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 398
________________ धन्य - चरित्र / 390 मंत्रियों की मित्रता को! सभी एकनिष्ठ भाव से स्वार्थी हो गये। अच्छा है कि हमारा एकमात्र सहायक धर्म ही है, वह कहीं नहीं गया। ऐसे लोगों के साथ मैत्री नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सो चिय मित्तो किज्जई, जो किर पत्तम्मि वसणसमयम्मि | न हु होइ पराहूओ, सेलसीलघडिअपुरिसुव्व । । उसे ही मित्र बनाना चाहिए, जो दुःख का समय प्राप्त होने पर शैलेशी को प्राप्त लकड़ी वाले पुरुष की तरह पराभूत नहीं होता । तथा उत्तमैः सह साङ्गत्यं, पण्डितैः सह संकथाम् । अलुब्धैः सह मित्रत्वं कुर्वाणो नावसीदति । । २ । । उत्तम लोगों के साथ संगति, पंडितों के साथ बातचीत तथा निर्लोभियों के साथ मित्रता करता हुआ इन्सान व्यथित नहीं होता । अभी तो मुझे "पुण्योदय ही श्रेष्ठतर है" इस लोकोक्ति को मान लेना चाहिए ।" उसके बाद सामायिक पूर्ण होने पर पारकर सभी सामान तैयार करके जैसे ही चलने के लिए तैयार हुआ, तभी जोर-जोर से हाहाकार मच गया। थोड़ा ही आगे चला था कि आगे गये हुए सार्थजनों को वस्त्र रहित दिगम्बरों की तरह दौड़कर आते हुए देखा। उन्हे देखकर विस्मित होते हुए श्रेष्ठी ने पूछा - " आप लोगों की ऐसी अवस्था कैसे हुई?" उन्होंने भी कहा- "तुम धन्य हो ! तुम्हारा धर्म धन्य है । तुम्हारी आस्था धन्य है। जैसी तुम्हारी धर्म में स्थिरता है, वैसा ही फलित पुण्य हमने प्रत्यक्ष देखा है । हम सब उतावले होकर आगे जा रहे थे । आधा कोस- मात्र गये होंगे, तभी गहन कुंज से धाड़ उठी। उन धाड़ चोरों ने हमारी ऐसी अवस्था करके हमें छोड़ दिया। सभी लुटे गये। किसी को भी नहीं छोड़ा। " यह सुनकर श्रेष्ठी ने उन सभी को वस्त्रादि दिये, जिससे यश - - वृद्धि हुई । तब श्रेष्ठी ने विचार किया - "अभी आगे जाना उचित नहीं है। मैं पुण्योदय से बच गया। सभी जगह पुण्यबल ही समर्थवान है । अगर पुण्य बल है, तो घर बैठे ही लाभ हो जायेगा। आज से मैं गाड़ी आदि से देशान्तरगमन से कठोर कर्म व्यापार नहीं करूँगा, क्योंकि शास्त्रों में इसके लिए बहुत बड़ा प्रायश्चित्त कहा है। अतः इस व्यापार का मुझे यावज्जीवन नियम है।" इस प्रकार का नियम करके लौटकर वापस घर आ गया। तभी पुण्यबल से उस कंचनपुर से जो माल वसन्तपुर में बेचने के लिए खरीदा था, वह वही कंचनपुर में महँगा हो गया। सेठ ने जब वह माल वापस वहीं बेचा, तो वसन्तपुर से जिस लाभ की आशा थी, उससे भी ज्यादा लाभ प्राप्त हुआ । श्रेष्ठी के लाभ, यश व धर्म- तीनों की वृद्धि हुई। लोग प्रशंसा करने लगे - "धन्य है यह! जैसी इसकी धर्म में है, दृढ़ता

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