Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 408
________________ धन्य-चरित्र/400 करो। हम समग्रग्राही नहीं हैं।" कुमार ने कहा-"स्वामी! यदि संपूर्ण संसार के दुःख समूह से रक्षण की इच्छा हो, तो मैं अन्न का एक भाग ही दूँ, पर मुझे तो मेरे संपूर्ण संसार को जड़ से उखाड़ने की इच्छा है। अतः यह सब देने के लिए उत्कण्ठित हूँ। आप तो परम उपकारी, जगत के लिए एकमात्र निष्कारण वत्सल रूप हैं। इसलिए मुझ दीन पर दया करके इस समग्र पिण्ड को ग्रहण करके बहुत दिनों से दान देने की इच्छा को पूर्ण कीजिए, जिससे मुझे निरुपाधिक सुख की निश्चय ही प्राप्ति होवे।" इस प्रकार उसके अत्यन्त भक्ति से भरे भावोल्लास को जानकर उसकी भक्ति खण्डित न हो, अतः मुनि ने पात्र बाहर निकाला। कुमार ने भी समग्र पिण्ड दे दिया। उस अवसर पर कुमार के मस्तक से पैर तक समुद्र की लहरों की तरह हर्षोल्लास वृद्धि को प्राप्त हुआ, जिससे हृदय मन में न समाता था। हर्ष के प्रकर्ष से प्रमोद से जकड़े हुए की तरह प्रतीत होता था। मानो आजन्म दरिद्री को अकस्मात् करोड़ों मूल्य का निधान अपने घर में प्राप्त हो गया हो। हर्ष से व्याकुल होता हुआ वह वचन बोलने में भी समर्थ नहीं हो पा रहा था। ऐसे अवसर पर उसी मार्ग से आकाश में जाते हुए शासन-देव व देवी कुमार की अत्यन्त दान-भक्ति को देखकर चित्त में अत्यन्त चमत्कृत हुए। उन्होंने कुमार के ऊपर गुण-राग से आकर्षित हृदयवाले होकर ऊँचे स्वर में देव-दुन्दुभि बजवायी और कहा-"तुम धन्य हो! तुम धन्य हो! तुमने श्रेष्ठ दान दिया है। अतः धर्म रूपी वृक्ष के पुष्प रूप चन्द्रधवल का राज्य तुम्हें दिया।" इस प्रकार वरदान देकर देव-देवी अन्तर्धान हो गयी। कुमार तो साथ-आठ कदम साधुजी के पीछे जाकर पुनः नमन कर अपने स्थान पर आ गया। पर दान के अवसर पर मिले हर्ष से पुनः-पुनः पुलकित होने लगा। कितने ही समय तक अनुमोदना करके पुनः गाँव के अन्दर भिक्षा द्वारा सत्तु प्राप्त करके प्राणवृत्ति की। उसी शासन-देवी ने तुम्हें भी स्वप्न में बताया। पुनः दूसरे दिन उसी देवी द्वारा अति-भक्तिपूर्वक दान-धर्म के फल की प्राप्ति के द्वार से यश-कीर्ति के विस्तार के लिए देव-वर्ग के साथ बहु-मानपूर्वक यहाँ लाया गया राजन! यह वही वीरधवल है।" तब राजा ने सुख-क्षेम वार्ता आदि शिष्टाचार करके, तिलक करके सात अंग वाला राज्य उसे दे दिया। वीरधवल को शिक्षा दी कि तुम्हारे द्वारा राज्य शुद्ध परिणतिपूर्वक और न्यायपूर्वक पाला जाना चाहिए, जिससे किसी को भी मेरी याद न आये। अन्त में तुम भी चारित्र ग्रहण करना। श्लेश्म से चिपकी मक्खी की तरह मत बनना। वीरधवल ने उसकी सभी बातें विनयपूर्वक एकाग्र मन से सुनी तथा स्वीकार की। उसके बाद वीरधवल ने महोत्सवपूर्वक चन्द्रधवल, धर्मदत्त आदि को अनुमोदनापूर्वक दीक्षा प्रदान करवायी। उन्होंने पंच-महाव्रत अंगीकार किये। विधिपूर्वक शिक्षा लेकर

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