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धन्य - चरित्र / 401
यथार्थ मुनि मण्डली में प्रविष्ट हो गये । गुरुदेव ने उपदेश दियाचारित्ररत्नान्न परं हि रत्नं, चारित्रलाभान्न परो हि लाभः । चारित्रवित्तान्न परं हि वित्तं, चारित्रयोगान्न परो हि योगः । ।
चारित्र रत्न से श्रेष्ठ अन्य रत्न नहीं है । चारित्र लाभ से श्रेष्ठ अन्य कोई
लाभ नहीं है । चारित्र धन से श्रेष्ठ अन्य कोई धन नहीं है और चारित्र योग से श्रेष्ठ अन्य कोई योग नहीं है ।
न च राजभयं न चौरभयम्, इहलोकसुखं परलोकहितम् ।
नर - देवनतं वरकीर्तिकर, श्रमणत्वमिदं रमणीयतरम् ।।
इसमें न तो राजा का भय रहता है और न चोरों का ही भय रहता है। यह इसलोक में सुखकारी और परलोक में हितकारी है। मनुष्य व देवों द्वारा यह नमस्कार - कारी है - इस प्रकार यह श्रमणत्व रमणीय से भी रमणीय है । तावद् भ्रमन्ति संसारे पितरः पिण्डकाङ्क्षिणः । यावन् कुले विशुद्धात्मा यतिः पुत्रो न जायते । ।
पिण्ड के आकांक्षी पितर संसार में तब तक भ्रमण करते है, जब तक कुल में यति रूप पुत्र पैदा नहीं होता ।
इत्यादि धर्म-देशना सुनकर वीरधवल आदि ने भी गृहस्थ - धर्म को अंगीकार
किया ।
उधर जातिस्मरण ज्ञान से युक्त मर्कटी को गुरु - आज्ञा से धनवती ने घर ले जाकर अपने पुत्र व पुत्रवधू से पूर्वभव सम्बन्धी स्नेह-सम्बन्ध के विपाक को बताकर कहा—“इसका पालन-पोषण हमें करना चाहिए। यह मर्कटी जाति - स्मरण ज्ञान से सम्पन्न है। अतः इसके एकान्तर उपवास के नियम - योग्य पारणा आदि का तुम दोनों ध्यान रखना। ज्यादा क्या कहूँ? मेरे जैसा ही इसको समझाना, कुछ भी अन्तर मत समझना।"
यह कहकर धनवती संयम में सावधान मनवाली हो गयी । मर्कटी भी धर्म की आराधना करके थोड़े ही समय में मरकर सौधर्म देवलोक में देवी हुई । अवधिज्ञान से उपकार का स्मरण कर उन्हीं आचार्य की सेवा में रहने लगी। गुरुदेव भी नवदीक्षित साधुओं के साथ पृथ्वी पर विहार करने लगे । क्रम से संयम की आराधना करके केवलज्ञान प्राप्त करके चन्द्रधवल राजर्षि ने मोक्ष को प्राप्त किया । धर्मदत्त व धनवती भी संयम की आराधना करके एक-एक मास की संलेखना से समाधि - मरण द्वारा मरकर अनुत्तर विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहाँ तेंतीस सागरोपम की आयु का पालन करके महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य - जन्म लेकर मोक्ष में जायेंगे।
उधर वीरधवल महा-विभूति के साथ नगर में प्रवेश करके न्याय - घण्टे के वादनपूर्वक राज्य का पालन करने लगा। कुछ दिनों बाद उसके पिता ने उसकी वार्ता सुनी, तो हर्षपूर्वक बहुमानपूर्वक बुलाकर उसे राज्य देकर आत्म-साधना में जुट गये।