Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 415
________________ धन्य-चरित्र/407 होने से दुःख नहीं होता" यह कहावत है।" तब तीसरी सोचने लगी कि कल मेरी भी यही दशा होनेवाली है। तब जैसे-जैसे सूर्य ऊपर चढ़ने लगा, वैसे-वैसे चिन्ता व शोक से युक्त होने से उसका कहीं भी चित्त नहीं लग रहा था। चौथे दिन उसे भी आज्ञा देकर भेज दिया। यह बात जब भद्रा को पता चली, तो शालिभद्र के समीप आकर विविध प्रकार से स्नेह-युक्त वचन-युक्तियों के द्वारा अत्यन्त दीन वचनों द्वारा समझाया, पर वह संयम लेने के भावों से जरा भी पीछे न हटा। इस प्रकार प्रतिदिन एक-एक नारी को कामदेव की नगरी की तरह त्यागने लगा, मोहनीय की उत्पत्ति का कारण जानकर उनके स्पर्श-मात्र के राग को भी धारण नहीं करता था। उधर शालिभद्र की बहन सुभद्रा अपने पति धन्य के मस्तक को सुगन्धित जल से धोकर अत्यन्त सुगन्धित तेल आदि डालकर कंघी से चोटी गूंथ रही थी, अन्य सौतें भी यथा-स्थान बैठी हुई थीं। तब उस सुभद्रा के नयनों से भ्रातृ-वियोग के दुःख का स्मरण हो आने से चित्त के स्वस्थता-शून्य हो जाने से कुछ उष्ण अश्रु धन्य के दोनों कन्धों पर गिरे। तब धन्य ने कुछ उष्ण अश्रु-जल का स्पर्श होने से ऊँची व तिरछी नजर से प्रिया का मुख देखकर कहा-"प्रिये! इन अश्रुओं का कारण क्या है? क्या किसी ने तुम्हारी आज्ञा खण्डित की है? अथवा किसी के द्वारा तुम्हारे मर्म वचन उद्घटित किये गये है? या किसी ने तुम्हें तुच्छ शब्द कहे हैं। पूर्वकृत पुण्य-प्रभाव-जन्य सकल सुखों से भरे मेरे भवन में तुम्हें दुःख का उदय कैसे हुआ? जिससे तुम्हारे बिना बादल के अकस्मात् बादलों से बरसात की तरह अश्रु-बिंदु गिरे?" तब वह गद्गद् होकर बोली-“स्वामी! आपके भवन में दुःख लेशमात्र भी नहीं है। लेकिन मेरा सहोदर शालिकुमार राजा के घर पधारनेवाले दिन से ही उदासीन हो गया है। वीर प्रभु के वचन श्रवण करने के बाद तो परम वैराग्य से वासित अन्तःकरण वाला होकर व्रत ग्रहण करने को इच्छुक है। वह प्रतिदिन एक-एक पत्नी का त्यागकर रहा है। एक महीने में वह सभी पत्नियों का त्याग कर देगा और व्रत ग्रहण कर लेगा, तब मेरा पितृगृह भाई से शून्य जंगल की तरह मेरे उद्वेग का कारण हो जायेगा। भाई के चले जाने पर प्रतिवर्ष रक्षा का बन्धन किससे बाँधूंगी? कौन मेरी प्रसन्नता पूर्ण करेगा? कौन मुझे पर्व के दिवसों पर व शुभ दिवसों पर आमंत्रित करेगा? किस शुभ हेतु से उत्साहपूर्वक मैं पिता के घर जाऊँगी? कभी पिता के घर चली भी गयी, तो दुःख भरे हृदय से ही मेरा आगमन होगा। स्त्रियों का मन पितृगृह के सुख की वार्ता के श्रवण-मात्र से हृदय अमृत से पूर्ण होने की तरह शीतल प्रसक्ति का पात्र हो जाता है। श्वसुर गृह से उदासीन स्त्रियाँ पिता के घर जाकर सुख प्राप्त करती हैं, पर मैं पितृ-भ्रातृ-विहीन किसके घर में जाऊँगी? अतः भाई के वियोग-श्रवण से मेरे आँखों से आँसू निकल पड़े। अन्य कुछ भी दुःख नहीं है।"

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