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धन्य-चरित्र/402 इस प्रकार वीरधवल दोनों राज्यों को बहुत समय तक पालकर अवसर आने पर श्रीदत्त नामक पुत्र को राज्य देकर तीन प्रकार की शुद्धिपूर्वक चरित्र की आराधना करके मोक्ष को प्राप्त हुआ। ।। इति धर्मदत्त-वृत्त व उसके अन्तर्गत चन्द्रधवल व
वीरधवल का वृत्तान्त।। इसलिए हे भव्यों! धर्मदत्त के मोह से मलिन किये गये कर्मों के विचित्र विपाक से युक्त परम वैराग्य-जनक चरित्र को सुनकर उसे जीतने के उपाय रूप परम वैराग्य रस से युक्त संसार भावना को भजो, क्योंकि संसार में परिभ्रमण करते हुए जीवों द्वारा विविध कर्मों की गति से चारों गतियों में किस-किस पर्याय को प्राप्त नहीं किया गया। जैसे-राजा बनकर रंक होता है और रंक भी राजा हो जाता है। गरीब अमीर बन जाता है और अमीर गरीब बन जाता है। देवराज मरकर गधा बनता है और गधा मरकर देव बनता है। कीड़ी हाथी के रूप में पैदा होती है और हाथी मरकर कीड़ी बनता है। इत्यादि भवान्तर में अनेक पर्यायें उत्पन्न होती है। जीव को पूर्वभव में अनुभूत कुछ भी याद नहीं रहता। प्राप्त भव के अभिमान से मत्त होकर रहता है। जो इसलोक में अखण्ड प्रचण्ड शासनवाला राजा सात अंगों से युक्त राज्य का पालन करता हुआ आँख झपकाने मात्र में करोड़ों जीवों को कम्पायमान करता है, हमेशा श्रेष्ठ बल से युक्त होता है, अनेक राजाओं को अपने चरणों में नमाता है, उसके मुख से निकला एक वाक्य भी व्यर्थ नहीं जाता है, शिकार के द्वारा हजारों बार जीवों को व्यथित करता है, गीत-नृत्यदि में मग्न रहता हुआ जगत के जीवों को तृणवत् मानता हुआ रहता है, वह भी मरकर नरकों में उत्पन्न होता हुआ एकाकी ही क्षेत्र वेदना, परमाधामी देवों द्वारा दी जानेवाली वेदना तथा परस्पर कृत वेदना को सहन करता है, वहाँ भी अनेक जीवों को मारकर तिर्यंच या मानव भव पाकर हिंसादि पाप कर पुनः नरकों में उत्पन्न होता है। इसी प्रकार के क्रम से भ्रमण करता रहता है। इस प्रकार परभव तो दूर रहा, इसी भव में विचित्र कर्मों के विपाकोदय से जीव अनेक अवस्थाओं का अनुभव करता है। चकवर्ती भी भिखारी की तरह गोते खाता हुआ सुना जाता है। जब तक जीव कर्मों के अधीन है, तब तक संसार में परिभ्रमण करता है। जब तक अच्छी श्रद्धा से श्रीमद् जिनवाणी के द्वारा कर्म-गति में कुशल होकर मोहनीय कर्म का क्षय नहीं करता, तब तक जीव को सुख कहाँ? वहाँ जो सांसारिक सुख है, वह तो चोर को वध के समय मिष्टान्न देने के समान है। जैसे मरण अत्यन्त सन्निकट देखकर चोर को मिष्टान्न प्रिय नहीं लगता, इसी प्रकार आगम से पौद्गलिक सुख के आस्वादन का कटु फल रूप नरक-निगोदादि के स्वरूप को जानकर सांसारिक सुख प्रिय नहीं लगता, बल्कि वैराग्य का ही उदय हैं। क्योंकि
मधुरं रसमाप्य स्यन्दते, रसनायां रसलोभिनां जलम् । परिभाव्य विपाकसाध्वसं, विरतानां तु ततो दृशि जलम् ।।