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धन्य - चरित्र / 397
दिशा से श्वेत हाथी पर आरूढ़ श्वेत छत्र धारण किये हुए दोनों ओर चामर हिलाये जाते हुए दिव्य आभरणों से भूषित कोई दिव्य वाद्ययंत्र, गति, नृत्य आदि से युक्त बहुत सारी देव-ऋद्धि से युक्त होकर वहाँ आया । आगमन के साथ ही वह श्वेत गज से उतरकर सविनय गुरु को नमन करके बैठ गया ।
तब गुरुदेव ने राजा से कहा - "राजन । यह वही वीरधवल है ।"
राजा ने कहा - "स्वामी! यह कौन है? कहाँ से आया है? इसने मेरी दीक्षा के अवसर को कैसे जाना? यह सभी कृपा करके बताए।"
गुरु ने कहा- "इसकी घटना भी सुनिएवीरधवल का वृत्तान्त
सिंधु देश में वीरपुर नामक नगर है। वहाँ जयसिंह नामक राजा थे। उसके वीरधवल नामक पुत्र था । वह शिकार का शौकीन था । प्रतिदिन शिकार में व्यस्त रहता था। एक बार उसने एक गर्भवती हरिणी को बाण से बींध दिया। उसके गर्भ को तड़फड़ाकर भूमि पर गिरा हुआ देखकर तथा भविव्यता के योग से कुमार स्वयंमेव ही करूणा को सम्प्राप्त हुआ । स्वयं की निन्दा करने लगा - "हा ! मैंने गर्भवती हरिणी को मार डाला। ये वन में उत्पन्न प्राणी अनाथ, अशरण, निर्दोष हैं, हम जैसे राजाओं द्वारा निःशंक होकर मारे जाते हैं, तो ये बिचारे किसके आगे फरियाद करें, क्योंकि
रसातलं यातु यदत्र पौरुषं, कुनीतिरेषाऽशरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यद् बलिनापि दुर्बलो, हहा! महाकष्टमराजकं जगत् । । २ । ।
उस जगह पौरुष रसातल में चला जाये, कुनीति निर्दोषों की शरण में न जाये, जहाँ बलवानों के द्वारा दुर्बलों की घात की जाती हो। हा! जगत में अराजकता का महाकष्ट है! तथा
इक्कस्स कए नियजीवियस्स, बहुयाओ जीवकोडिओ । दुक्खे ठवन्ति जे केवि, ताण किं सासयं जीयं ? । । २ । ।
एकमात्र अपने जीवन के लिए जो अनेक कराड़ों जीवों को दुःख में डालते हैं, क्या उसका अपना जीव शाश्वत है?
इस प्रकार विचार करते हुए केवल हिंसा में ही दोषों की अपरिमितता को देखकर और दया में अपरिमित गुणों को देखकर करूणा का पोषण करने के लिए अपने मन में जीवघात - नियम को दृढ़ता के साथ ग्रहणकर लौटकर घर आ गया। उस हरिणी का घात जब कभी स्मृति - पथ पर आता, तो पुनः उसी प्रकार अपनी निन्दा करते हुए बहुत सारे पूर्वकृत पाप कर्मों का क्षय किया ।
एक दिन नागरिक पुकार करते हुए राजसभा में आये - "देव ! कोई भी अपूर्व व निपुण चोर प्रकट हुआ है, नगर को लूट लिया। कितने ही धनवान महेभ्य दरिद्रता को प्राप्त होते हुए अनिर्वचनीय कष्ट को प्राप्त हो रहे हैं । "