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धन्य-चरित्र/395 इस प्रकार के अमात्य-वचनों को सुनकर थोड़ा-सा हँसते हुए चन्द्रधवल ने कहा-"मन्त्रीवर! जो आपके वचन की सरस रचना द्वारा राज्य-पालन में भी धर्म दर्शाया है, वह किसका? जो पंच-महाव्रत के पालन में अशक्त है, मन्द शक्तिवाला है अथवा शिवकुमार की तरह जिसे पिता की अनुमति प्राप्त न हुई हो अथवा प्रशस्त भक्ति-राग द्वारा पूर्व संचित अति पुण्य-प्रकृतिवाला हो, अविरति से युक्त संचय किये हुए पुण्य प्राग्भार वाला हो, वह धर्मप्रिय व्यक्ति घर पर रहता हुआ ही न्यायपूर्वक राज्य-पालन करता हुआ जिनाज्ञा का पालन करता है और जो तुमने कहा"गृहस्थ-लिंग सिद्धा अनंत संख्या में सुने जाते है," वह सत्य है, पर उन सबके वैसी ही भवितव्यता का योग रहा होगा, कारण का परिपाक रहा होगा, अत्यधिक कर्मों के योग का उदय हुआ होगा, बाधक कर्म का उदय रहा होगा अथवा बाधक कर्मों की अल्पता से ऐसा हुआ होगा। यह तो कदाचित् एक पैदल चलने की पगडंडी-मात्र है, राजपथ नही हैं। जो सिद्धों की अनन्तता कही है, वह काल की बहुलता की अपेक्षा से है। कोई भी मूर्ख इस प्रकार जान ले और उसी को साध्य बनाकर गृहस्थ- धर्म में रत रहकर ही मोक्ष की वांछा करेगा, तो उसके इच्छित की सिद्धि नहीं हो पायेगी। हमारे जैसे अत्यधिक कर्म-स्थिति की सत्तावालों के द्वारा गुरुकृपा से संसार के स्वरूप को जाने हुए, जन्म, जरा, मरण रोग, शोक आदि की अवश्य प्राप्ति होने से उल्लसित वैराग्यवालों का शीघ्र ही चरित्र ग्रहण करना श्रेय है। विलम्ब करना महा-मूर्खता होगी, क्योंकि धर्म की गति शीघ्रता ही है। संसार में श्रेय-कार्यों में बहुत विघ्न आते है। कदाचित् विलम्ब करने से अध्यवसाय आदि निमित्त के योग से आयु के अपवर्त्तन-करण के बल से मरण हो जाये, तो सोचे हुए भाव निष्फल हो जायेंगे। गत्यन्तर में गया हुआ जीव पूर्व भव में आचरित संयम, तप, श्रुत आदि कुछ भी नहीं जान पाता। जिस कुल में उत्पन्न होता है, उसी की श्रद्धा करता है, अन्य की नहीं। कोई-कोई तो सुमंगल आचार्य तथा आर्द्रक कुमार की तरह कुछ पूर्वबद्ध प्रबल आराधक पुण्य के उदय से किसी की भी सहायता मिलती है, तो पुनः पूर्वजन्म का स्मरण होता है, पर अपने स्वभाव से नहीं। हाथ से गये हुए को पुनः मिलना दुष्कर है। जो तुमने कहा-परोपकार के सदृश अन्य कोई धर्म नहीं है। वह सत्य है। पर पहले अपने आपको तारते हुए अन्यों को भी तारता है-यही साधक का लक्ष्य है और जिनाज्ञा भी यही है। पर अपने आप को संसार-पथ पर चलाकर अन्य का उपकार करने में क्या दक्षता है? जैसे कि घर के बच्चों के भूखे होने पर भी चौराहे पर जाकर दानशाला की स्थापना करना व्यर्थ है। वह कार्य मूर्खता का ही सूचक है। मैं तो मूर्ख नहीं हूँ, अतः जो होना है, वह होकर रहे, पर चारित्र तो अवश्य ही ग्रहण करूँगा। जिनेश्वर प्रभु के द्वारा धर्म में उद्यम ही मुख्य रूप से बताया गया है। औदायिक भावों में तो नियमा कर्मों की मुख्यता कहीं गयी है। अतः कल निश्चयपूर्वक चारित्र ग्रहण करूँगा।"