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धन्य-चरित्र/388 उसकी पत्नी भी धर्मप्रिया थी। सेठ उभय सन्ध्या में प्रतिक्रमण करता था। यथा-अवसर सामायिक भी करता था। पर्यों में पौषध करता था। पारणे के दिन अतिथि संविभाग व्रत का पालन भी करता था। व्रत नहीं छोड़ता था। इस प्रकार धर्म करता था। पर संविभाग व्रत को बीच-बीच में अतिचारपूर्वक करता था। जैसे-कभी शक्कर आदि वस्तु को सचित्त वस्तु के ऊपर रही हुई जानकर भी “यह निर्दोष है" इस प्रकार कह कर साधुओं को दे देता था। कभी देने की इच्छा न होने से अचित्त वस्तु को भी कुटिलतापूर्वक सचित्त वस्तु के ऊपर रख देता था। कभी-कभी भिक्षा का समय बीत जाने के बाद भी निमन्त्रित करता था। जैसे-जब गोचरी में गये हुए साधु अपने निर्वाह योग्य आहार को पाकर लौटकर जब उपाश्रय की ओर चल पड़ते थे, तब घर से बाहर आकर बहुत ही जोर देकर बहुमानपूर्वक विविध प्रकार की प्रवृत्ति के द्वारा निमन्त्रित करता था। यह सब सुनकर लोग जानते थे-अहो! इसकी दान-रुचि! साधु तो निर्वाह-मात्र जितना प्राप्त हो जाने पर अधिक ग्रहण नहीं करते है, क्योंकि वे निःस्पृह होते है। कभी-कभी वह साधुओं को आहार करने के बाद निमन्त्रित करता था। कभी-कभी नहीं देने की भावना से कहता था-यह आहार के योग्य वस्तु शुद्ध है, पर दूसरों की है। उसकी भी दान की रुचि तो है। “दे दिया यह सुनकर हर्षित भी होगा। अतः अगर आपको कल्पता है, तो आप ग्रहण कर सकते हैं।
तब जितेन्द्रिय साधु कहते-नहीं, हमें यह कल्पनीय नही है।
तब वह कहता-आपको बिना दिये मैं कैसे भोजन ग्रहण करूँगा? क्योंकि उसके आने पर वह आग्रहपूर्वक मुझे देगा और उसे मना करना मेरे लिए अशक्य होगा। फिर क्या होगा?
तब साधु कहते-वह तुम्हारा हिस्सा होगा। तुम यथारुचि ग्रहण कर सकते हो। तब वह उस वस्तु को खा लेता था।
कभी-कभी "यह दान देता है, तो क्या मैं उससे भी हीन हूँ?" इस प्रकार के अभिमान व ईर्ष्या से दूसरों के प्रति मात्सर्य भाव रखता था।
___ अथवा बिना चाहे ये साधु आ गये हैं। जिस वस्तु की याचना के लिए ये साधु निकले हैं, वह वस्तु तो उनके मुख के सामने ही पड़ी है। दृष्ट वस्तु माँगेंगे, तब बिना दिये कैसे छुटकारा होगा? अतः वह वस्तु उनकी नजर में न आये-यही अच्छा है। साधु तो दृष्ट की ही याचना करते हैं, अदृष्ट की नहीं।
इस प्रकार वह कभी-कभी कृपणता के कारण संविभाग करता था। इस प्रकार के धर्म का निर्वाह करते हुए उसके कई वर्ष व्यतीत हो गये।
एक बार उसके नगर से कोई सार्थ बसन्तपुर जाने की इच्छा से उद्यत हुआ। सभी जन रास्ते के सामान की तैयारी में लग गये। तब लक्ष्मीसागर के मित्र वसुदेव ने उससे कहा-“हे मित्र! मैं वसन्तपुर जाना चाहता हूँ। अतः तुम भी वसन्तपुर जाने के लिए तैयार हो जाओ।"