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धन्य-चरित्र/387 उन्मूलन करके सिद्धिगति में चिदानन्द पद का अनुभव करता है।"
तब पुनः-पुनः धनवती को देखते हुए, गुरु वचनों को सुनते हुए पूर्व में आराधित धर्म-कर्म आदि प्रवृत्ति को धनवती व गुरु मुख से सुनते हुए उस बन्दरी को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। तब वह धनवती, अपने पति और गुरु को पहचानकर अत्यन्त अधीरतापूर्वक दुःख करने लगी।
तब गुरु ने प्रतिबोध दिया-"भद्रे! अब वृथा विलाप करना व्यर्थ है। मोह की गति ही ऐसी है। तुमने मृत्यु के समय पति व पुत्री की चिन्ता से आर्त्त-ध्यान किया, इससे तिर्यंच गति प्राप्त हुई। अपने ही दोषों के कारण जीव दुर्गतियों में भ्रमण करते हैं। सभी जीव अपने ही कर्मों का अनुसरण करते हुए जैसे कर्म बाँधे हैं, वैसे ही भोगते हैं। पूर्वोपार्जित कर्म को बिना उग्र तपस्या के कोई भी खपाने में समर्थ नहीं है, क्योंकि जो संसार के स्वरूप को जानकर दुःखित होते हुए मुक्ति के लिए एकान्त रूप से उद्धत होता है, वह भी नवीन कर्मों को तो नहीं बाँधता है, पर पूर्व में बाँधे हुए कर्म तो भोग कर तथा तपस्या के द्वारा ही खपाता है। तुम भी पंचेन्द्रिय हो। पंचम गुणस्थान प्राप्त करने के योग्य हो, अतः शक्ति के अनुरूप तप को स्वीकार करो। नमस्कार के ध्यान को अविच्छिन्न गति से ध्याओ, जिससे तुम्हें दुर्गति से छुटकारा मिलेगा और उस बीज के द्वारा परम्परा से सिद्धि-सुख को तुम पाओगी। यह तुम्हारी पुत्री धनवती तुम्हारा परिपालन करेगी और तुम्हारी सहायता करेगी।"
इस प्रकार गुरु वचनों को सुनकर उस मर्कटी ने मन ही मन एकान्तर उपवास का नियम गुरु-साक्षी से ग्रहण किया। गुरु ने भी वह सभी धनवती को बता दिया-"तुम इसे अपने घर पर रखकर इसकी धर्म-सहायिका बनना। यह तुम्हारी माता है। तुम करोड़ों भवों तक भी इसके उपकार का कर्ज चुकाने में असमर्थ ही रहोगी। पर माता के उपकार का बदला चुकाने का एकमात्र अवसर यही है कि धर्म से च्युत हुई इसको पुनः धर्म में जोड़ दो। तुम दोनों का माता-पुत्री का सम्बन्ध सफल हो जायेगा।"
तब धनवती ने गुरुवचनों को अंगीकार करके उस मर्कटी को पूर्णनिष्ठा भाव के साथ रखा।
पुनः राजा ने पूछा-"स्वामी! धर्मदत्त को सोलह करोड़ ही धन क्यों मिला, उससे ज्यादा क्यों नहीं? आप उसका हार्द बता रहे थे, तभी मर्कटी के नृत्य के कारण वह वृत्तान्त बीच में ही रह गया। अब बताने की कृपा कीजिए।"
तब गुरु ने कहा-"तो आप सभी ध्यान से सुनिए
धर्मदत्त और चन्द्रधवल के पूर्व भव का वृत्तान्त
कालिंग देश में कांचनपुर नामक नगर था। वहाँ लक्ष्मीसागर नामक व्यापारी था। उसकी पत्नी का नाम लक्ष्मीवती था। उनके घर में लक्ष्मी नही थी, फिर भी परम्परा से जिनधर्म से वासित कुल होने से भक्तिपूर्वक सर्वज्ञोक्त धर्म ही करते थे।