Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 400
________________ धन्य - चरित्र / 392 चाहिए ।" 1 तब लक्ष्मीचन्द्र ने "अच्छा" कहकर नीचे जाकर विचार किया - " पिता ने तो 16 मोदक देने की आज्ञा दी है, पर साधु तो बहुत सारे हैं। मेरे विवाह के लिए हजारों की संख्या में मोदक बनवाये है, उन्हें तो अविरति, मिथ्यात्वी संसारी जीव खायेंगे। ये तो निःस्पृह तपस्वी हैं, जो रत्नों के पात्र सरीखे है । परम पुण्योदय से इन का योग मिलता है। ये साधु आहार करके ध्यान स्वाध्याय, तप, जप आदि करेंगे । संसारी लोग तो स्निग्ध आहार करके विषयादि में विशेष रूप प्रवृत्ति करेंगे । अतः मेरे विवाह के लिए तैयार किये गये मोदक अगर मैं इन साधुओं को दूँगा, तो मेरे लिए इसलोक व परलोक में अत्यधिक लाभदायी होगा। अगर मैं भक्तिपूर्वक अधिक दूँगा, तो मुझे लाभ होगा। बुजुर्ग लोग तो प्रायः कृपण ही होते हैं। आज मेरा महान भाग्योदय है कि विवाह के अवसर पर मोदकों से भरे घर में बिना बुलाये जंगम कल्प वृक्ष की तरह ही साधु कहीं से भी पधार गये हैं। जन्म-जात दरिद्री के घर में कामधेनु के आगमन की तरह प्राप्त अतर्कित लाभ के स्थान को कैसे छोडूं ? " इस प्रकार वीर्योल्लास की वृद्धि से प्रफुल्लित हृदय व रोमांचित शरीर-युक्त होकर हर्षपूर्वक अगणित मोदक थाल में भर के हाथों में उठाकर साधुओं के समीप जाकर हँसते हुए मुख से कहा - "स्वामी ! इन मोदकों को ग्रहण कीजिए । " तब साधुओं ने उपयोग लगाकर आगम अनुसार शुद्धाहार जानकर कहा - "हे देवानुप्रिय ! इतने मोदक क्यों लाये हो? इनमें से हमें यथोयाग्य दे दो। हमें अधिक से प्रयोजन नहीं है। किसी को अन्तराय न हो इसका ध्यान रखना।" लक्ष्मीचन्द ने कहा—“स्वामी! अन्तराय तो आज मेरी टूटी है, जो मुझ गरीब के आँगन को आपने अपने चरण-कमलों द्वारा पावन किया है। मेरे महान भाग्य के उदय से अनेक पण्डित मुनियों के साथ श्री धर्मघोष सूरि पधारे हैं । वे मोदक आपकी रुचि के अनुसार आहार करने के योग्य हैं। पुनः आप अन्य साधुओं को भी ये मोदक दे देना । मेरे इस हर्ष को आप कृपा करके पूर्ण करें। पात्र फैलायें और मेरा उद्धार करें।" इस प्रकार उसके अत्यधिक भावोल्लास को जानकर निस्पृह मुनियों द्वारा "इसके भावों पर कुठाराघात न हो" इस कारण उसके सामने पात्र रख दिया। तब कुमार ने अपने हाथों से थाल उठाकर अत्यन्त प्रीतिपूर्वक पात्र में फैलायी हुई झोली में सारे मोदक उड़ेल दिये। साधु तो "बस बस" करते रह गये । कुमार के हृदय में तो हर्ष का पार ही नहीं था । हर्षित होते हुए विनति करने लगा - "आज स्वामी ने मुझ बालक पर महान कृपा की, जिससे मेरे भाव खण्डित नहीं हुए। आपको तो इसकी वांछा नहीं है, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ । साधुओं को तुष के ढोकले और घेवर में कुछ भी अन्तर नजर नहीं आता । केवल मुझ बालक की इच्छा पूर्ण करने के लिए ही करूणापूर्वक आपने मेरी विनति स्वीकार की है। आपके इस उपकार को मैं आजन्म नहीं भूलूँगा । ऐसा दिन फिर कब आयेगा?"

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