Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 393
________________ धन्य-चरित्र/385 नहीं। पर मैंने अनेकों उत्तम महा-पुरुषों की सेवा के द्वारा उनके चित्त को प्रसन्न करके अनके चमत्कारिणी विद्याएँ प्राप्त कर ली हैं, वे नाश को प्राप्त हो जायेंगी। इसका मुझे दुःख है। तब उसने कहा-'कमलपुरवासी धनसागर वणिक जहाज के टूट जाने से नौ दिनों बाद यहाँ इस तट पर आयेगा। तुम उसे अपने घर पर लाकर निःशंक होकर उसे सारी विद्याएँ दे देना। वह योग्य है, एक बार सुनने से ही उसे सारी विद्याएँ याद हो जायेगी। इस तरह तुम उऋण हो जाओगे। पात्र को न देने पर और कुपात्र को देने पर महान प्रायश्चित्त आता है। अतः पात्र प्राप्त होने पर क्षण मात्र का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए तथा तुम्हे अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ करना चाहिए-यह कहकर देवी अन्तर्धान हो गयी। देवी की कही हुई सारी बात आज मिल गयी। अतः मैं तुम्हारी भक्ति कर रहा हूँ। अतः हे सज्जन! संकल्प-विकल्प छोड़कर मेरे घर को अपना-सा मानकर सुखपूर्वक रहो। जहाज भग्न होने की चिन्ता छोड़ दीजिए। ज्ञानी ने जो देखा है, वही होता है। शुद्ध-श्रद्धावान जैनों को कर्मोदय की चिन्ता प्रबल नहीं होती। जब उदय पर अपना वश नहीं चलता, तब चिन्ता से क्या फायदा? बल्कि आर्त्त-ध्यान से जीव पाप-कर्मो को बढ़ाता है। अतः भव्य जीवों को प्रति-क्षण हेय उपादेय रूप से सम्यक रीति से कर्म-बन्ध का विचार करना चाहिए, क्योंकि कर्मों का बन्ध तो अपने ही अधीन है। अतः हेय व उपादेय के परिचय से प्रायः पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता और पुण्य प्रबल होता है। शुभ भाव होने से पूर्वकृत कर्मो के रस-बन्ध मन्द-स्थिति वाले हो जाते हैं और अल्प रसवाले कर्मों की तो निर्जरा ही हो जाती है। अतः हमेशा शुभ भावों के साथ ही समय बिताना चाहिए यही जिनाज्ञा है। आप भी तो आगमों में अन्तश्रद्धा रखनेवाले हैं। अतः आपको अधीरता नहीं लानी चाहिए।' इस प्रकार आश्वासन देकर उसने मुझे अपने घर पर रखा। मैं भी जिनाज्ञा समक्ष रखकर कर्मोदय-जन्य चिंता का त्याग करके उसके घर में रहने लगा। फिर एक अच्छा दिन देखकर उसने मुझे एकान्त में बिठाकर अपने अन्दर रही हुई सम्पूर्ण विद्याएँ अपने मन की प्रसन्नता के साथ मुझे प्रदान की। मैंने भी उन विद्याओं को विधिवत् ग्रहण किया। फिर शुभ दिन शुभ मुहुर्त में अपनी शक्ति के अनुसार महोत्सव करके उसने अपनी पुत्री का विवाह मेरे साथ कर दिया और घर का भार मुझ पर डालकर निश्चिन्त होकर घर में ही रहते हुए धर्माराधन-पूर्वक काल बिताने लगा। फिर एक दिन अपनी आयु की स्थिति को पूर्णता की ओर जाती हुई देखकर समाधिपूर्वक व विधिपूर्वक आराधना करते हुए देवलोक को प्राप्त हुआ। फिर मैं उसके मृत्यु-कार्य करके धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग-साधन युक्त होकर रहने लगा। इस प्रकार मेरे साथ सांसरिक-वैषयिक सुख को अनुभव करते हुए द्विज-पुत्री ने गर्भ धारण किया। समय पूर्ण होने पर उसे पुत्र पैदा हुआ, उसका

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