________________
धन्य-चरित्र/384 धनवती नामकी पत्नी है, यह उसकी माता थी।"
इतने में ही उनके बगल में बैठा कोई व्यक्ति वहाँ से उठकर दौड़ता हुआ। नगर के अन्दर धर्मदत्त के घर जाकर धनवती से बोला-"आपके पिता धनसागर मुनि-वेश में आचार्य पद को प्राप्त किये हुए यहाँ पधारे हैं। वे अतिशय ज्ञानी हैं। सभी लोगों के संदेह का निवारण कर रहे हैं।"
वह अपने पिता के समाचार सुनकर तत्क्षण वहाँ आयी। तब तक मुनि ने भी पुत्री के विवाह के जिए जहाज पर चढ़ने आदि की बात बता दी थी। तब पिता के दर्शन कर आँखों से अश्रुकणों को गिराते हुए उसने वन्दना की। फिर धनवती ने पूछा-"यह वेश क्या है? यह सब कैसे हुआ?"
गुरु ने कहा-“वही कहता हूँ| सुनो, जब जहाज टूटा, तो मेरे हाथ फलक लगा। उसके आधार से तैरते हुए नौ दिनों में मुझे किनारा मिला। फलक छोड़कर तट पर उतरकर मैं आगे चला, तो दूर से एक नगर को देखकर उस नगर की ओर चला। तभी मार्ग में कोई ब्राह्मण मिला। विप्र ने चलाकर मुझसे कहा-'हे धनसागर! आओ-आओ, मेरे घर आओ।'
मैंने कहा-'तुम कौन हो? मुझे कैसे पहचानते हो?' उसने कहा-'मेरे घर चलो। सब कुछ बताता हूँ।'
यह कहकर वह अपने घर ले गया। फिर उसने तेल से मालिश करवाकर गर्म पानी से स्नान करवाकर मार्ग-श्रम को दूर कर दिया। फिर विविध रसों के स्वादवाली रसोई बनवाकर भक्ति-भावपूर्वक मुझे खाना खिलाया। फिर आचमन करके, मुँह साफ करके, ताम्बूल आदि से मुख-शुद्धि करके घर की ऊपरी भूमि पर हम दोनों जाकर बैठे। तब मैंने पूछा-'हे द्विज श्रेष्ठ! बिना जान-पहचान के आप मेरी सेवा–भक्ति क्यों कर रहे हो? मैं तो आपको नहीं पहचानता हूँ।
उसने कहा-'आश्चर्यकारी वार्ता सुनो। यह शंखपुर नामक नगर है, यहाँ मैं जैन धर्म से वासित अन्तःकरणवाला जिनशर्मा नामक ब्राह्मण रहता हूँ। श्रीमद् जिनाज्ञा से यथाशक्ति धर्म में प्रवर्तित रहता हूँ। सद्गुरुओं व सुसज्जनों की सेवा द्वारा शास्त्रों में रहे हुए अनेक हार्द प्राप्त किये। मुझे आजीविका भी सुलभ है, पर कुल की परम्परा को बढ़ानेवाला एक भी पुत्र नहीं है। मैने इसके लिए देवता की आराधना की। उसने भी मेरी सेवा से प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष प्रकट होते हुए कहा-'मेरी आराधना तुमने क्यों की?'
मैने कहा-'मुझे पुत्र प्रदान करें।'
उसने कहा-'वत्स! तुम्हारे अन्तरायकारी निकाचित कर्मों का उदय है, अतः तुम्हारे पुत्र नहीं हो सकता।'
__ तब मैंने कहा-'अपुत्र की गति नहीं है-सद्गुरु के प्रसाद से यह श्रद्धा तो मुझे नहीं हैं। क्योंकि शुद्ध पुण्य रूप अध्यवसायों से ही सद्गति होती है, अन्यथा