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धन्य-चरित्र/389 लक्ष्मीसागर ने कहा-“हे मित्र! गाड़ी-बैल आदि का योग मुझे नही है। अतः कैसे तैयार होऊँ?
वसुदेव ने कहा-"बलीवर्द आदि का योग मैं करा दूंगा। जो तुमसे हो सके, वह तुम कर लो। बाकी सभी मैं दिलावा दूंगा।"
इस प्रकार मित्र द्वारा उत्साहित किये जाने पर वह भी तैयार हो गया और सार्थ भी रवाना हो गया।
पीछे-पीछे वह भी भरी हुई गाड़ी व बैलों के साथ-साथ चला। किसी तृण-जल आदि से युक्त प्रदेश में रात्रि निवास के लिए लक्ष्मीसागर व सार्थ के अन्य लोग भी भव्य स्थल देखकर रूक गये। यथा-अवसर सभी सो गये। पिछली रात्रि में लक्ष्मीसागर ने उठते हुए निद्रा को त्यागकर और सामायिक लेकर परमेष्ठि-शरण ली। तभी रात्रि का अल्प समय शेष जानकर जो पैदल चलनेवाले लोग थे, उन्होंने सार्थ के स्वामी को जानकारी करायी-"हे श्रेष्ठी! ग्रीष्म काल का समय है। दिन चढ़ते ही धूप में हम दुःखी होंगे। अतः ठण्डे-ठण्डे समय में रास्ता काट लेना उचित है।"
तब सार्थपति ने सेवकों को आज्ञा दी-"शीघ्र ही सार्थ को रवाना किया जाये।"
तब सेवकों ने आवाज लगायी-"हे सार्थ के लोगों! सार्थ रवाना होता है, सभी उठ जाइए।"
सभी ने अपने-अपने गाड़े जोड़ लिये। उस समय लक्ष्मीसागर ने अपने नियम की जानकारी देने के लिए तथा उन्हें कुछ देर रुकने का इशारा करने के लिए दो-तीन बार हुँ-हुँ' किया, छींक की। फिर भी जब वे नहीं रुके, तो उसने चिल्लाकर कहा-“हे अमुक! मेरे सामायिक है।"
यह सुनकर कुछ स्वार्थप्रिय लोगों ने कहा-“देखो! सेठ की निपुणता। इसने सामायिक कैसे समय में ग्रहण की है? प्रयाण तो दूर रहा, सूर्योदय होते ही धूप तपने लगेगी, लोग व बैल धूप से पीड़ित होंगे, वे पशु भूख से मरते हुए भार ढोते हुए जब उत्तारक स्थान पर पहुँचेंगे, तभी उन्हें आहार प्राप्त होगा। यह तो अपनी धर्म-रसिकता बताने के लिए सामायिक लेकर बैठ गया।"
इस प्रकार बोलते हुए अपनी गाड़ी को ठीक करके चलाने लगे। कोई-कोई अपने वचनों की चतुराई दिखाते हुए "हे सेठ! हम जा नहीं रहे है, किन्तु गाड़ों को जोड़कर मार्ग पर खड़ी रखकर रुके हुए है। जल्दी से आ जाना, देर मत करना।" इस प्रकार कहते हुए आगे चल पड़े। कुछ लोग “हम आगे जाकर सार्थ को रोकते हैं। इस प्रकार कहते हुए चले गये।
इस प्रकार अनेकों बहाने बनाकर सभी चले गये। श्रेष्ठी के खुद के बैल व गाड़ी रह गयी, अन्य कोई नहीं। तब श्रेष्ठी ने विचार किया धिक्कार है इन पाप