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धन्य-चरित्र/371 यह कहकर गहरी गम्भीर बुद्धिवाला वणिक होने से हृदय में कुछ विचार करके गुप्त खड्ग रक्षा के लिए समीप रख ली। फिर योगी ने धर्मदत्त को अपने सामने पराड्.मुख करके बिठाया एवं कहा-"तुम पीछे की ओर मत देखना।"
उसके बाद दोनों के बीच रक्तचन्दन के पुतले को स्थापित किया। फिर योगी ने पहले क्रिया करके अन्त में इच्छित फल की सिद्धि के लिए सरसों अभिमन्त्रित करके धर्मदत्त की पीठ पर उछालने लगा। इस प्रकार उछालते हुए कितना ही समय व्यतीत हो गया। तब धर्मदत्त के मन में विकल्प उत्पन्न हुआ कि "इस योगी ने मुझसे पूर्व में कहा था कि रक्त चन्दन से निर्मित पुरुष का मंत्र व उच्छाटन के द्वारा स्वर्ण पुरुष बनाऊँगा। पर अभी तो यह काष्ठ के पुतले को छोड़कर मेरी पीठ पर उच्छाटन कर रहा है। क्या समझू? मुझे ही मारने के लिए तो प्रवृत्ति नहीं कर रहा है? अगर इसका कथन सत्य है, तो जिसका स्वर्ण-पुरुष बनाना है, उसी पर आच्छोटन करे, पर यह तो मुझ पर उच्छाटन कर रहा है। अतः मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है। जटाधारी का विश्वास नहीं करने चाहिए यह नीतिशास्त्र में भी कहा हुआ है।"
ऐसा विचार कर सर्व आपदाओं का निवारण करनेवाले, सकल श्रुत के सार रूप नमस्कार महामंत्र- 'ॐ नमो अरिहंताणं, शिरस्कं शिरसि स्थितम्' इत्यादि वज्रपंजर स्तोत्र के द्वारा आत्म-रक्षा की। अपने सम्पूर्ण अंगों को वज्रपंजर स्तोत्र में रहे हुए अंग-न्यास से अभेद्य करके उसी का ध्यान करता हुआ बैठा रहा। जब योगी भी 108 बार आच्छोटन विधि पूर्ण करके खङ्ग को तैयार करने लगा, तो कुमार ने तिरछी दृष्टि से उसे खङ्ग तैयार करते हुए देखा। विचार करने लगा कि यह तो मेरे वध के लिए ही निश्चयपूर्वक खड्ग को तैयार कर रहा है, अब कोई देर नहीं है।
तब प्रत्युत्पन्नमति से धर्मदत्त ने शीघ्र ही गुप्त रखी हुई खङ्ग लेकर सम्मुख आकर योगी का वध करके उसे कुण्ड में डाल दिया। तब मन्त्र–क्रिया के प्रभाव से योगी के शरीर का स्वर्ण-पुरुष बन गया, क्योंकि जो दूसरे निरपराधी पुरुष के ऊपर बुरी नजर रखता है, वह स्वयं ही संकट में गिर जाता है। इसमें कोई शक नहीं। तब धर्मदत्त ने विचार किया कि इस पापी ने तो पहले ही कपट-कला के द्वारा धर्म–मार्ग रूपी वचन-रचना से मुझे छल लिया। पर अत्यधिक पाप-प्रवृत्ति के कारण इसका अपना ही शस्त्र अपने घात के लिए हुआ। अतः इस लोभ को धिक्कार है, क्योंकि
लोभस्त्यक्तो न चेत्तर्हि तपस्तीर्थफलैरलम् ।
लोभस्त्यक्तो भवेत्तर्हि तपस्तीर्थफलैरलम्।।1।। अगर लोभ का त्याग नहीं किया, तो तप व तीर्थ का फल व्यर्थ है और अगर लोभ का त्याग कर दिया, तो तप व तीर्थ के फल से क्या!
जीव लोभवश अपने इष्ट की सिद्धि के लिए बड़े-बड़े पाप करता है। पर पुण्योदय के बिना स्व-चिन्तित से विपरीत ही होता है। धर्म के बिना सामने आये हुए