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धन्य - चरित्र / 372 दुःख को कोई भी विफल नहीं कर सकता। वह स्वर्ण - पुरुष अचिन्त्य भाग्य से प्राप्त हुआ है। अब इसे शीतोष्ण जल से सींचता हूँ ।
इस प्रकार विचार करते हुए पूर्व में लाये हुए शीतोष्ण जल को लाने के लिए जल रखे हुए स्थान पर गया। वहाँ रखा हुआ जल लाकर जब कुण्ड के समीप आकर देखता है, तो वहाँ स्वर्ण - पुरुष को नहीं देखा । यह देखकर उसके वियोग से पीड़ित होकर मूर्च्छित होता हुआ भूमि पर गिर गया। वायु के द्वारा जब सचेतन हुआ, तो विचारने लगा-अहो! मेरे द्वारा पाप किया गया, पर फल प्राप्त नहीं हुआ । चलने में असमर्थ होने पर भी चण्डाल के दरवाजे तक गया। पर अपने पेट की पूर्ति भी नहीं हुई । हा दैव ! अमृत से भरा पात्र भूखे के हाथ में देकर, जब भूखा व्यक्ति हर्षपूर्वक कौर बनाकर उसे मुख में डालने को तत्पर हुआ, तब सहसा उस पात्र को छीन लिया। ऐसी ही दुर्दशा मेरी भी हुई है । हे दैव ! आपको मैं ही दिखाई दिया। आपने तो गिरे हुए को ही लात मारी है। अगर आपको मुझे देना ही नहीं था, तो दिखाकर दुःख के ऊपर दुःख क्यों दिया ? घाव के ऊपर नमक क्यों छिड़का? क्या आपको जरा भी दया नहीं आयी? मैंने आपका क्या अपराध किया था?
इस प्रकार विलाप करते हुए अत्यन्त दुःखपूर्वक शेष रात्रि व्यतीत की । प्रभात होने पर विचार किया - बना हुआ स्वर्ण - पुरुष वन के अन्दर ही रहनेवाले किसी व्यक्ति ने ही चुराया है। अतः मैं राजा के समीप जाकर पूकार करता हूँ। क्योंकिदुर्बलानामनाथानां पीडितानां नियोगिभिः ।
वैरिभिश्चाऽभिभूतानां सर्वेषां पार्थिवो गतिः । । 1 । ।
निर्बल, अनाथ, नियोगि आदि से पीड़ित और शत्रु से अभिभूत - इन सभी की एकमात्र गति राजा की है।
हे राजन! मैं वही श्रीपति श्रेष्ठी का पुत्र धर्मदत्त यहीं का निवासी हूँ। मैंने आपके समीप आकर स्वर्ण - पुरुष की सिद्धि आदि सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा है। आप जैसे अच्छे राजाओं के राज्य में माता-पिता तो सिर्फ जन्म के हेतु हैं, पर सम्पूर्ण जीवनयापन सुख का निर्वाह तो राजा से ही होता है। ऐसा विचार कर मैं आपके समीप आया हूँ। अब तो आपको जैसा अच्छा लगे, वैसा कीजिए। आप के सिवाय अन्यत्र कहीं भी गति नहीं है, क्योंकि राजा से बढ़कर कोई नहीं होता। कहा भी हैशठदमनमशठपालनमाश्रितभरणानि राजचिह्नानि ।
चिह्न हैं ।
हैं ।
अभिषेकपट्टबन्धो वालव्यजनं प्रणस्यापि । । 1 । ।
दुष्ट का दमन व सज्जन का पालन, आश्रितों का भरण-पोषण राजा के
मस्तकाभिषेक, पट्ट - बन्धन तथा पंख झलना-ये कार्य तो घायल के भी होते
हे स्वामी! मैंने अत्यन्त दुःख रूपी समुद्र में गिरकर दुःख से विहवल हृदय