________________
धन्य-चरित्र/377 हुई। वह उसे बड़े ही यत्नपूर्वक रखती है, उसे क्षणभर के लिए भी नहीं छोड़ती। अतः अब यह बात मेरे वश में नहीं है।"
कुमार ने कहा-“हे यक्षराज! मैंने तो इसके लिए ही आपकी आराधना की है, अतः आप मुझे वही स्त्री देवें ।'
यक्ष ने कहा-"वह मेरी प्रिया को समर्पित की हुई है। इस बात में अब मेरा सार्मथ्य नहीं है। कौन गृह-क्लेश को शुरू करे? अन्य जो कुछ भी तुम माँगोगे, मैं तुम्हारा समीहित पूर्ण करूँगा, पर इस विषय में नहीं।" यह कहकर यक्ष अदृश्य हो गया।
कुमार भी यक्ष के कथन को सुनकर हर्ष-विषाद-विस्मय- आश्चर्य आदि मिश्रित भावों से युक्त होता हुआ विचारने लागा-"धिक्कार है! देव भी स्त्री के अधीन दिखाई देते हैं। मोहनीय कर्म किसको मोहित नहीं करता? जिन्होंने जिनागम के हार्द
को प्राप्त नहीं किया है, वे जीव कर्माधीन हैं-इसमें कोई विस्मय नहीं। अब की हुई प्रतिज्ञा के पालन का क्या उपाय है? इस प्रकार क्षण-भर विचार करने के बाद निर्णय किया कि तप के बिना अन्य कोई उपाय नहीं है, क्योंकि दुःसाध्य कार्य तप से ही सिद्ध होता है। कहा भी है
यद् दूरं यद् दूराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम्।
तत्सर्व तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ।।1।।
जो कठिन हैं, कठिनाई से आराध्य हैं अथवा कठिनतम है, वे सभी कार्य तप से साध्य हैं, क्योंकि तप को लांघना सहज नहीं है।"
यह विचार कर उस यक्षिणी का उद्देश्य कर छ: उपवास निश्चल-चित्त से किये। पूर्ववत् धैर्यबल से यक्षिणी का आसन कम्पायमान हुआ, वह प्रकट होकर बोली-"वत्स! यह साहस क्यों किया?"
कुमार ने कहा-"धर्मदत्त की प्रिया लौटा दीजिए।"
यक्षिणी ने कहा-"कल्पान्त होने पर भी उसे लौटाना शक्य नहीं है, पर तुम्हारे उत्कृष्ट साहस की अवहेलना करने में भी समर्थ नहीं हूँ।"
यह कहकर बिना इच्छा के भी वस्त्राभूषणों से सत्कार करके धर्मदत्त की प्रिया को लौटा दिया।
कुमार ने भी धर्मदत्त को बुलाकर कहा-"यह तुम्हारी प्रिया है या नहीं?"
वह भी दिव्य आभूषणों से अलंकृत तथा दिव्य वस्त्रों से उपशोभित अपनी प्रिया को देखकर प्रसन्न होता हुआ कुमार से बोला-"आपकी कृपा से मेरा इष्ट सिद्ध हुआ।
कुमार ने कहा-"अभी आगे चलो, जिससे तुम्हारा स्वर्ण-पुरुष भी तुम्हें वापस दिलाऊँगा।"
___ यह कहकर प्रिया युक्त धर्मदत्त को लेकर वह श्मशान में गया। वहाँ पर