Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 386
________________ धन्य-चरित्र/378 अनुमान से वृक्ष के निकट प्रदेश की भूमि दिखायी और कहा-“हे भद्र! तुम इस भूमि को खोदो।" उसके वचनों पर विश्वास करते हुए धर्मदत्त ने भूमि खोदी तो वहाँ रहा हुआ देदीप्यमान महान स्वर्ण-पुरुष निकला। धर्मदत्त ने विचार किया-"अहो! इस प्रकार का निष्कारण उपाय करनेवाला कुमार ही है, अन्य कोई नहीं। मैं सैकड़ों उपाय करूँ, तो भी इस उपकार का प्रतिफल नहीं चुका सकता। पर यथाशक्ति कुमार की सेवा मुझे करनी चाहिए। मुझे उन्हीं के अनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिए, पुनः-पुनः अपने मुख से उनकी स्तुति करनी चाहिए।" इस प्रकार क्षण भर विचार करने के बाद कुमार से कहा-“हे कुमार! आपने मुझ पर महान उपकार किया है, जिसे एक मुख द्वारा सैकड़ों-हजारों वर्षों तक भी कहना शक्य नहीं है। इससे आगे अब क्या माँगू?" तब कुमार ने कहा-"प्रतिज्ञा का निर्वाह हो जाने से मेरा चित्त भी अत्यंत आनन्दित हो रहा है। अपने वचनों को निभाने से ही पुरुष का पौरुष प्रशंसित होता है। क्योंकि अर्थः सुखं कीर्तिरपीह मा भूदनर्थ एवास्तु तथापि धीराः। निजप्रतिज्ञामनुरुध्यमाना, महोद्यमाः कर्म समारभन्ते ।।1।। अर्थ, सुख व कीर्ति भी अनर्थकारी न हो, अतः धीर पुरुष अपनी प्रतिज्ञा के अनुरोध से अत्यन्त पुरुषार्थ वाले कर्म का समारम्भ करते हैं। तुम्हारे मनोरथ की पूर्ति होने से मैंने तो सब कुछ प्राप्त कर लिया।" यह कहकर चुप होने पर धर्मदत्त ने कहा-“स्वामी! यह स्वर्ण-पुरुष आप ही ग्रहण करें, मैंने तो प्रिया को पा लिया, तो मानो सौ स्वर्णनरों को प्राप्त कर लिया। अतः इसे आप ही ग्रहण करें। कुमार ने कहा-"क्या तुम पागल हो गये हो या प्रिया-दर्शन से मतिभ्रान्त हो गये हो? जो कि इस अत्यन्त प्रयत्न से साध्य व दुष्प्राप्य स्वर्ण-पुरुष को ग्रहण नहीं कर रहे हो?" तब धर्मदत्त ने कहा-"स्वामी! मैं तो वणिक हूँ। अतः यह स्वर्ण-पुरुष मेरे घर में उचित प्रतीत नहीं होता। आपकी कृपा से मेरे यहाँ तो सब अच्छा ही होगा। यह तो आपके ही योग्य है, अन्य के लिए नहीं।" कुमार ने कहा-"कहीं भी सुना अथवा देखा है कि कष्ट कोई सहन करे और उसका फल कोई और ग्रहण करे! तुम ही वन-2 में घूमे, तुमने ही गर्मी आदि महान कष्ट सहन किये। तुमने मरणान्त उपसर्ग आदि सहनकर अत्यन्त क्लेशपूर्वक यह स्वर्ण-पुरुष निष्पादित किया है। उसे मैं कैसे ग्रहण कर सकता हूँ? अतः तुम्हारा बनाया हुआ यह स्वर्ण–पुरुष तुम ही ग्रहण करो।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440