Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 378
________________ धन्य-चरित्र/370 जटा व जनेऊ का धागा भार रूप ही है, क्योंकि दया बिना धर्म नहीं। अगर जीवदया का पालन किया जाये, तो हृदय निर्मल हो जाता है। अगर दया मन में नहीं है, तो उस सोने के पुरुष का क्या करोगे? उस सोने को पहनने से क्या फायदा, जिससे कान टूटते हों। गोरख फकीर कहता है-बाबू! सावधान होकर सुनो। अपना-पराया गिनना छोड़कर एक-मात्र जीवदया पालो, बाकी धर्म तो माया है। इन वचनों से प्रसन्न होते हुए धर्म-दत्त ने योगी से कहा-"तो स्वर्णपुरुष का निर्माण आप किस प्रकार करेंगे?" योगी ने कहा-"रक्तचन्दन के काष्ठ से पुरुष-प्रमाण पुतला बनाकर, मन्त्र के प्रभाव से सरसों को छिड़ककर कुण्ड में गिरायेंगे। तब उष्ण व शीतल जल से सिंचित होता हुआ वह स्वर्ण-पुरुष बन जायेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। धर्मदत्त ने कहा-"फिर तो जल्दी से तैयारी कीजिए, क्योंकि सज्जनों की सम्पदा परोपकार के लिए ही होती है। अतः हे योगीन्द्र! स्वर्ण पुरुष बनायें, जिससे आपकी कृपा से मेरी दरिद्रता का भी नाश हो। जैसे कि हाथी के भोजन से गिरते हुए ग्रास का लव-मात्र भी कीड़ियों के समूह का पोषण करता है।" योगी ने कहा-“हे भद्र! हम जैसे योगियों का स्वर्ण पुरुष से क्या प्रयोजन? गुरु-कृपा से हम ऐसी प्रार्थना भी नहीं करते। केवल तुम्हारी दरिद्रता देखकर मुझे करूणा आ गयी, जिससे मैं तुम्हारे लिए यह सारा उपक्रम करूँगा।" उसके कथन को श्रवणकर धर्मदत्त ने कहा-"आप सत्य कहते हैं। आप जैसे तो एकमात्र परोपकार करने में ही तत्पर रहते हैं। सज्जन तो कवच की तरह अपने शरीर पर दुःख झेल कर भी दूसरों का तो उपकार ही करते हैं। क्योंकि कप्पासह सारिच्छडा विरला जणणी जणंत। नियदेह वंफट्टे वि पुण परगुह्यक ढंकंत।।1।। कवच जैसे पुरुष को बिरली माता ही जन्म देती है, जो अपनी देह पर वार झेलकर भीतर रहे हुए वक्ष को ढक देता है।" तब योगी ने कहा-“हे भद्र! सबसे पहले सपादलक्ष पर्वत के मध्य से शीतोष्ण पानी लाने का विचार करते हैं।" __ अतः वे दोनों वहाँ से चले। वहाँ जाकर शीतोष्ण-कुण्ड का पानी लेकर आये। फिर रक्तचन्दन काष्ठ से पुरुष-प्रमाण पुतला योगी ने बनाया। फिर आहुति आदि की सम्पूर्ण सामग्री इकट्ठी की। फिर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को वे दोनों श्मशान में गये। वहाँ पर अग्निकुण्ड बनाकर उसमें अग्नि को प्रज्जवलित किया। फिर योगी ने धातु की (लोह-रक्षा के) रक्षा के बहाने से खड्ग अपने बगल में रखकर उसके समीप स्वयं बैठ गया। धर्मदत्त से पूछा-"तुम्हारे पास भी लोह-रक्षा है?" उसने कहा-"है। पर आपकी कृपा है, तो रक्षा से क्या प्रयोजन?"

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