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धन्य-चरित्र/366 लेकर वीरता के साथ सामने जाकर उसे ललकारा-"हे पापिष्ठ! हे अनेक जीवों की घात करनेवाले! आज तुम्हारे पापों का उदय हुआ है। आज तुम्हे मैं छोडूंगा नहीं। तुम्हे मार डालूँगा।"
यह सुनकर क्रोधाविष्ट होते हुए राक्षस जैसे ही उठने लगा, अपनी ही तलवार से राक्षस मारा गया। यह देखकर चमत्कृत होते हुए धनवती ने उसकी भुजाओं की फूलों से पूजा की।
तब वे दोनों निर्भीक होकर वन में होनेवाले केले, द्राक्षा, जामुन आदि फलों का आहार करते हुए युगलिकों की तरह सुखपूर्वक रहने लगे।
एक दिन उसकी पत्नी ने कहा-"हे स्वामी! धर्म के बिना जीवन निरर्थक ही बीत रहा है। क्योंकि
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तइ।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।
जो-जो रात्रियाँ बीत रही हैं, वे लौटनेवाली नहीं है। अधर्म करनेवालों के लिए रात्रियाँ निष्फल ही जाती हैं। और भीयेषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।
जिनके न विद्या है, न तप है, न दान है, न ज्ञान है, न शील है, न गुण है, न धर्म है, वे मृत्युलोक में भारभूत ही हैं। ऐसे मनुष्य पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में रहते हुए भी पशुओं की तरह विचरण करते हैं।
अतः अपने निवास स्थान पर चला जाये, तो अच्छा होगा। वहाँ जाने पर देव-गुरु आदि के दर्शन होंगे। क्योंकि
यस्मिन् देशे न सन्मानं न वृतिर्न च बान्धवाः
न विद्यागमः कश्चिद् न तत्र दिवसं वसेत् ।। जिस देश में सम्मान नहीं, आजीविका नहीं, बान्धव नहीं, विद्या का आगमन नहीं, वहाँ बहुत दिनों तक नहीं रहना चाहिए।" अतः वे दोनों वहाँ से रवाना हो गये। चलते हुए काश्मीर देश के चन्द्रपुर नगर के निकट वन में पहुँचे । एक दिन संध्या के समय वन के बीच क्लांत होते हुए उन्होंने कहीं विश्राम किया। पिछली रात्रि में सूर्योदय से पूर्व ही जागृत होते हुए धर्मदत्त क्रीड़ावश अपनी पत्नी को इस तरह जगाने लगा
प्रोज्जृम्भते परिमलः कमलावलीनां शब्दायते क्षितिरुहोपरि ताम्रचूडः । शृंगं पवित्रयति मेरुगिरे विवस्वान्
उत्थीयतां सुनयने! रजनी जगाम।। "कमल-पंक्तियों की सुरभि जम्हाई ले रही है, वृक्ष पर मुर्गे बांग दे रहे है,