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धन्य-चरित्र/365 मन में करूणा उत्पन्न हुई है। अतः अगर अन्य कोई भक्ष्य मिल जायेगा, तो तुम्हे नहीं खाऊँगा।" यह कहकर वह गया और तुम्हें ले आया।
हे सत्पुरुष! तुम्हे देखकर मैं मन में सोचती हूँ कि विधि ने मुझे अभागी के रूप में क्यों पैदा किया? पहले माता-पिता का वियोग देखा और अब इस पुरुष का विनाश देखने के लिए मैं यहाँ बैठी हूँ।
यह कहकर उसने फिर कहा-“हे सत्पुरुष! आप कहाँ के हैं? सत्य–सत्य कहिए।"
उसके कथन को सुनकर हँसते हुए धर्मदत्त ने कहा-“भद्रे! तुमने अभी जिसके बारे में बताया, मैं वही धर्मदत्त हूँ। मेरा जन्म-स्थानादि तुमने बता ही दिया है, अन्य क्या बताऊँ? मुझसे और क्या पूछती हो?"
यह सुनकर वह सम्भ्रान्त-सी हुई, तभी उसकी बायीं भुजा फड़कने लगी। तब वह हर्षित होती हुई विचार करने लगी-यह तो शुभ लक्षण है। इससे यह इष्ट संयोग भी कुशलता का सूचक ही प्रतीत होता है। पर इसका रहस्य तो जिनेश्वर ही जानते हैं।
तब धर्मदत्त ने कहा-“हे भद्रे! यद्यपि हम दोनों का योग भाग्य ने किसी भी प्रकार से मिला दिया है, पर विचार करके बताओ कि लग्न का दिन कब का कहा
है?
उसने भी सोच-विचारकर दिन का निर्णय करके कहा-"वह दिन तो आज का ही है और अभी की ही बेला है।" उसने कहा-"तो फिर यह कल्याण वेला कैसे छोड़ी जा सकती है?" कन्या ने कहा-"ठीक है।"
तब धर्मदत्त ने उस शुभ वेला में उस युवती से विवाह कर लिया।
अब कन्या ने कहा-"प्राणेश! पाणिग्रहण तो हो गया, बहुत दिनों से इच्छित कार्य भी सिद्ध हुआ, पर राक्षस का डर तो अभी भी वैसे का वैसे है।"
धर्मदत्त ने पूछा-“राक्षस कहाँ है?"
श्रेष्ठी-कन्या ने कहा-"उसी सरोवर में स्नान करके, तलवार को सरोवर के पास रखकर देवों की पूजा करके उनकी स्तुति कर रहा है। वह भक्ति करते हुए मारणान्तिक कष्ट आने पर भी अपने स्थान से उठेगा नहीं।'
तब धर्मदत्त ने कहा-"मैं वहाँ जाकर राक्षस को मारता हूँ।" उसने कहा-"अगर ऐसी वीरता है, तो यह बेला उचित है।"
यह सुनकर वह अपने स्थान से उठकर आगे की ओर चला। पीछे-पीछे, धीरे-धीरे चलते हुए वह भी गयी। धर्मदत्त ने दूर से सेवा-पूजा करते हुए राक्षस को देखा। फिर धीरे-धीरे बिना आवाज किये पाँवों को रखते हुए उसके पीछे से तलवार