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धन्य-चरित्र/349 शंका नही है।"
इस प्रकार परस्पर मंत्रणा करके श्रेष्ठी के आदेश को प्राप्त करके भव्य वस्त्रों से सज्जित होकर कुमार के समीप जाकर जय-जयकार व प्रणामादि करके बैठते हुए कहने लगे-"स्वामी! आपकी शास्त्र-निपुणता की कीर्ति जगह-जगह सुनकर हमारी भी इच्छा हुई कि हम भी कुमार के समीप जायें, जिससे कुछेक शास्त्रीय अंशों का हमें भी ज्ञान प्राप्त हो। अतः कानों को पवित्र बनाने के लिए आपके पास आये है। आप कृपा करके हमारे कर्णों को पवित्र कीजिए।"
इस प्रकार कहकर विनयपूर्वक कुमार के समीप बैठे गये। कुमार ने भी शास्त्र-श्रवण के इच्छुक जानकर उन्हें सम्मान दिया एवं कहा-"आप सुखपूर्वक प्रतिदिन पधारें।"
यह सुनकर वे सभी जुआरी नियमित रूप से कुमार के पास आने लगे। कुमार जो-जो भी बोलता था, उस-उसको विस्मयपूर्वक सिर हिलाते हुए श्रवण करते थे और प्रंशसा करते थे। ऐसा करते हुए उन्होंने कुछ ही दिनों में कुमार के मन को जीत लिया।
एक दिन संगीत शास्त्र की चर्चा में एक जुआरी ने कहा-'"हे कुमार! इस शास्त्र के एक विशारद (पण्डित) यहाँ आये हुए हैं। हम उसके संगीत को सुनकर अत्यन्त आह्लाद को प्राप्त हुए हैं, पर उसके हार्द को जानने व बोलने में असमर्थ हैं। उस संगीत-विशारद ने पूछा-"क्या इस नगर यें कोई मर्मज्ञाता है, जो मेरे कथन के हार्द को जानकर प्रत्युत्तर दे सके?"
हमने कहा-"हाँ, है।" उसने कहा-" तो आप मुझे उनसे मिलवायें।"
अतः अगर आपकी इच्छा हो, तो आप कल वहाँ पधारें। आप तो सभी शास्त्रों के पारंगामी है। पर वह भी सज्जनों में शिरोमणि है। मनुष्यों को पहचाननेवाला एवं गुण-ग्राही है। आपको देखकर प्रसन्न ही होगा। आप भी जान जायेंगे कि वह निपुणों में अग्रणी है।"
कुमार ने कहा-"ठीक है, कल चलेंगे।"
यह सुनकर हर्षित होते हुए वे श्रेष्ठी के पास जाकर कहने लगे-'हे श्रेष्ठी प्रवर ! हमने कुछ अनुकूल कार्य किया है। हम इसे प्रभात में बाहर ले जायेंगे। अतः धन देने की कृपा करें। धन के बिना रसरंग की बात तक नहीं होती।" तब श्रेष्ठी ने धनरक्षक से कहा-"ये जितना माँगे, उतना धन दे दिया जाये।''
तब उन्होंने परिमित धन ग्रहण किया। धन लेकर राजा के एक माननीय संगीत-शास्त्र में विशारद पण्डित को जाकर कुछ भव्य वस्तुएँ उपहार स्वरूप देकर कहा-"आप कल अमुक वाटिका में आ जाना। हम वहाँ कल नगर के प्रमुख महेभ्य के पुत्र को लेकर आयेंगे, जो संगीत शास्त्र में विशारद और पण्डितों का प्रिय है।