Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 356
________________ धन्य - चरित्र / 348 अलग-अलग तोतों का उदाहरण पर्याप्त है । इस प्रकार तो हमारा सन्मार्ग - गामी पुत्र कुमार्ग - गामी बन जायेगा । फिर कुसंगति से उत्पन्न हुए उसके दोषों को दूर करने में कोई भी समर्थ नही होगा ।" इस प्रकार श्रेष्ठी द्वारा अत्यधिक समझाये जाने पर भी तुच्छ मति के कारण तथा भवितव्यता के योग से सेठानी नहीं मानी। वह बार-बार श्रेष्ठी पर दबाव डालने लगी। अत्यधिक आग्रह से श्रेष्ठी का चित्त भी भ्रान्त हो गया। क्योंकि जे गिरुया गंभीर थिर, मोट्टा जेह मरट्ट । महिला ते भगाड़िया, जिमकर धरिय घरट्ट ।। रे रे यन्त्रक! मां रोदी: कं कं न भ्रामयन्त्यमूः । भ्रुवः प्रक्षेप्रमात्रेण कराकृष्टस्य का कथा? । । 1 । । हे यंत्रक ! मत रोओ। इन स्त्रियों ने भौंहों के इशारों पर किस-किस को नहीं नचाया, तो फिर हाथ से खींचने का तो कहना ही क्या ? तब सेठानी के अत्याग्रह से श्रेष्ठी ने जुआरियों को बुलाकर कहा - "यह मेरा पुत्र मुनि - जनों के संसर्ग से केवल धर्मशास्त्रों में श्रवण, पठन पाठन परावर्तन आदि में समय बिताता है। पर खाने-पीने मौज शौक, स्त्री, विलास, वस्त्राभूषण, परिधान, वन-उपवन में गमन, राग सिक्त गीतों का श्रवण आदि सांसारिक सुखों में आसक्ति का लेश मात्र अंश भी नहीं है । यह प्रतिक्षण शास्त्रों का ही अभ्यास करता है। एक वर्ग का साधन करने मात्र से गृहस्थ - धर्म का निर्वाह नहीं होता । गुरुओं ने भी गृहस्थों को त्रिवर्ग साधने के लिए कहा है। तुम लोग निपुण हो, शास्त्र अभ्यास के बहाने से इसके पास रहो। फिर अवसर प्राप्त होने पर बातों ही बातों में इसे अनुकूल करके इसका मन मोड़कर उपवन में गमन करने तथा राग-रंग के श्रवणादि में इसे रसिक बनाना, क्योंकि जिसका सर्वशास्त्रों में परिचय विस्तारपूर्वक होता है, वह जिस किसी स्थान पर जाता है, वहाँ-वहाँ उसका चित उस विषय के हार्द का ग्राही होने से प्रमोद का अनुभव करता है, क्योंकि वह निपुण होता है। सभी लोग इसलिए अपनी-अपनी कलाओं में कुशल होते है। तुमलोगों के हाथ में समर्पित है। इसे किसी भी प्रकार से योग रसिक बना दो। धन की चिन्ता मत करना। मैं मुँहमाँगा धन दूँगा।” श्रेष्ठी के वचनों को सुनकर वे जुआरी प्रसन्न हुए, क्योंकि "वैद्य - उपदिष्ट ही इष्ट है" इस नीति वाक्य के अनुसार उनका इच्छित कार्य ही हुआ। वे परस्पर मन्त्रणा करने लगे -"हम कुमार को उद्दाम कला में कुशल व्यक्ति के पास ले जायेंगे, तब वह इसे महेभ्य जानकर उसका मन जीतने के लिए अपनी अद्भुत कलाओं को दिखायेगा। तब हम भी धन खर्च के द्वारा अपूर्व - अपूर्व कौतुक देखेंगे। धन तो इस श्रेष्ठी का ही खर्च होगा। हम तो प्राप्त नर-भव को सफल करेंगे। अपनी इच्छित खान-पान आदि प्रवृत्ति पूर्ण करेंगे। आज तो हमें परम निधि प्राप्त हुई, इसमें कोई

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