Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 354
________________ धन्य- य - चरित्र / 346 की है, अतः पुत्र का सुख तुम्हें नहीं मिलेगा । अतः धर्म में अपनी मति स्थिर करो। " इस प्रकार कहकर शासन देवी अन्तर्धान हो गयी। उसका कथन सुनकर श्रेष्ठी हृदय में हर्षित होता हुआ विचार करने लगा - " यदि पुत्र होगा, बड़ा होगा, तभी तो सुख को देनेवाला है - यह ज्ञात होगा । उसने पहले जन्मोत्सव, लालन-पालन, तुतलाती भाषा का श्रवण, विविध आभूषण, वस्त्र - - परिधान आदि मनोरथों के सुख का अनुभव तो करूँगा। मेरी पत्नी को जो वन्ध्या की गाली लगती है, वह तो उतर जायेगी । भव्य घर में उसका विवाह करके परस्पर की स्थिति से देन -लेन आदि उत्सवों में उत्तम मनोरथ सफल होंगे। पुनः अविच्छिन्न संतान - परम्परा भी बढ़ेगी। सुख - दुःख देने की बात तो यौवन-वय प्राप्त होने पर ही ज्ञात होगी। उससे पहले का फल तो प्राप्त होगा ही । " इस प्रकार विचार करते हुए शेष रात्रि बीताकर प्रभात होने पर जिनेश्वर के नाम के स्मरणपूर्वक चैत्यवन्दन करके प्रत्याख्यान धारण करके घर के अन्दर गया । तब श्रीमती ने भी आकर प्रणामपूर्वक इस प्रकार कहा - "स्वामी ! आज रात्रि में मैंने सुख से सोते हुए स्वप्न में एक पूर्ण कलश को मुख में प्रवेश करते हुए देखा ।" श्रेष्ठी ने कहा-' - "गुणों से पूर्ण एक पुत्र - रत्न को तुम प्राप्त करोगी। मुझे भी आज रात्रि में शासन देवी ने इसी अर्थ को सूचन करनेवाला कथन किया है। अतः कोई भी उत्तम जीव तुम्हारी कुक्षि में अवतीर्ण हुआ है । " श्रेष्ठी के इन वचनों को सुनकर वह हर्षपूर्वक गर्भ का पालन करने लगी । दिन पूर्ण होने पर उसको पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रेष्ठी ने बारह दिन का महोत्सव करके, स्वजन - कुटुम्बादि को भोजन कराकर सभी के समक्ष उसको धर्मदत्त नाम दिया। क्रम से शुक्ल द्वितीया के चन्द्र की तरह बढ़ता हुआ वह 7-8 वर्ष का हुआ । तब पिता ने उसे पढ़ने के लिए लेखशाला में भेजा । उसने भी अपने कुल के योग्य सभी कलाएँ सीखीं। फिर पिता ने धर्म कला में कुशलता पाने के लिए साधु के समीप रखा, क्योंकि I बावत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाणं पवरं, जे धम्मकलं न याणन्ति । । 1 । । 72 कलाओं में निष्णात वे पंडित - पुरुष भी अपण्डित ही होते हैं, जो सभी कलाओं में श्रेष्ण धर्मकला को नहीं जानते हैं । धर्मदत्त ने अनुक्रम से यौवन वय को प्राप्त किया। पिता ने महा-इभ्य श्रेष्ठी की कन्या श्रीदेवी के साथ उसका परिणय - सम्बन्ध किया, पर शास्त्रों में कुशल होने से सदा शास्त्र - रस में मग्न रहता था, क्षण भर के लिए भी पुस्तक को नहीं छोड़ता था । उसे नये-नये शास्त्रों के विनोद में समय के बीतने का ज्ञान भी नहीं होता था । कभी भी उसके स्मृति - पथ पर स्त्री - विलास नहीं आता था । वह स्वप्न में भी स्त्री नाम को ग्रहण नही करता था । इसका कारण स्त्री के प्रति द्वेष, नहीं था, अपितु शास्त्र के

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