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धन्य - चरित्र / 260 जाने की विषम प्रतिज्ञा ग्रहण कर रखी है। अतः अब मुझे वहाँ शीघ्र ही जाना होगा। वहाँ आने-जाने में मुझे तीन - चार मास लग जायेंगे। अतः सभी लोग मुझसे बाकी रहा हुआ लेन-देन पूरा कर लेवें । " तब सभी महेभ्य कहने लगे - "हे श्रेष्ठी ! आप सुखपूर्वक वहाँ जायें । देवता की आराधना करके और कुण्ड में स्नान कराके अपने भ्राता के दोष का निवारण करें। आपके भाई के ठीक हो जाने से हमें बड़ा हर्ष होगा, क्योंकि हम आपके भ्राता की दुःख - विडम्बना को देखने में समर्थ नहीं है । आप जैसे महापुरुषों का इस प्रकार की विडम्बना में पड़ना युक्त भी नहीं है। हम लोग तो प्रतिदिन आशीष ही देंगे कि श्रेष्ठी की यह विडम्बना दूर हो जाये । हमें लाभ की चिंता नहीं है, क्योंकि आपके पास रहा हुआ हमारा लभ्य हमारे घर में रहने के तुल्य ही है। हम तो आपके गुणों के द्वारा खरीदे जा चुके हैं। अतः आप तो वहाँ जाकर इष्ट- कार्य की सिद्धि करके शीघ्र ही यहाँ आयें, जिससे आपको और हम सभी को अत्यधिक खुशी हो । "
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महेभ्यों के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पुनः श्रेष्ठी ने कहा- "हे सज्जन भाइयों! मुझे मन, वचन, काया से विश्वास है कि आप जो कुछ कह रहे हैं, वह सर्व सत्य ही है। आप सभी मेरे शुभचिन्तक हैं। आप लोगों के शुभ चिंतन से मेरा कार्य निर्विघ्न पूर्ण होगा। पर यह तो व्यवहार है। किसी का भी ऋण नहीं रखना चाहिए। जगत में ऋण के समान दूसरा कोई दुःख नहीं है । ग्रामान्तर जाने के समय तो विशेष रूप से किसी का भी ऋण नहीं रखना चाहिए, क्योंकि काल की संकलना को कोई नहीं जानता है । कल क्या होगा - कौन जानता है? काया अस्थिर है। चमकती हुई बिजली की तरह जीवन भी चंचल है । आयुष्य के समाप्त हो जाने पर तो भवान्तर में यह ऋण दस गुणा, सौ गुणा, हजार गुणा और उससे भी अधिक चुकाना पड़ता है। इसलिए अपना-अपना लभ्य लेकर ही आप लोग जायें । मेरे कार्य-सिद्धि करके आने पर पुनः वैसा ही होगा ।"
इस प्रकार अनुशासित उपदेशपूर्वक सभी का देय देकर वह निश्चिन्त हो गया। वे भी अपना-अपना लक्ष्य लेकर श्रेष्ठी की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये। सभी नगर में यह विदित हो गया कि अमुक दिन श्रेष्ठी बाहर निकलेगा और अमुक दिन रवाना होगा ।
उसके बाद श्रेष्ठी ने मुहूर्त्त के दिन नगर के बाहर उद्यान में शिविर लगवाये । रथ, गाड़ियाँ, ऊँट आदि वहाँ इकट्ठे किये। उनकी देख-रेख के लिए सेवक रखे। वह कपट से बनाया हुआ पागल भाई भी वहाँ रखा गया । प्रतिदिन श्रेष्ठी वहाँ जाता, कुछ समय तक वहीं रुककर वापस आ जाता। पूर्वोक्त जैसे-तैसे