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धन्य - चरित्र / 307 घर में लौटने लगी। अतः फिर से पहले की ही तरह व्यवसाय आदि करने लगा। लक्ष्मी का पूजन भी उसी तरह से रोज करता था । लक्ष्मी के आगमन से पुनः पहले की तरह सभी का मान्य हो गया। वह लोगों के आगे कहने लगा- "देखो, श्रीदेवी की भक्ति का फल । "
इस तरह कितना ही समय बीत जाने के बाद श्रीदेव ने भोग की आसक्ति से दूसरी औरत से विवाह किया । स्त्री को घर ले आया। दो दिनों के बाद रात्रि में प्रधान पलंग पर सोते हुए उसने एक श्रेष्ठ तरुणी को रोते हुए देखा। तब श्रीदेव ने उसके पास जाकर पूछा - "तुम कौन हो? तुम्हें क्या दुःख है ? किस कारण से तुम रो रही है ?
उसने कहा- "मैं तुम्हारी गृह - लक्ष्मी हूँ । रोने के कारण यह है कि न चाहते हुए तुमसे वियुक्त होना पड़ रहा है ।"
श्रीदेव ने कहा- "क्यों?"
उसने कहा-' - "तुमने जिस दूसरी स्त्री से विवाह किया है, वह पुण्यरहिता, अलक्ष्मी रूप तथा निर्भागिनी है। उसके साथ मेरा रहना नहीं हो सकता। उसके पाप के उदय से मुझमें यहाँ रहने की शक्ति नहीं है। बिना इच्छा के भी मुझे तुम्हारा घर छोड़ना पड़ेगा ।"
इस प्रकार कहकर लक्ष्मी अदृश्य हो गयी। थोड़े से ही दिनों में उसका धन धीरे-धीरे चला गया । पुनः गरीबी आ गयी। पहले की ही तरह लोग उसकी हँसी उड़ाने लगे। दूसरों की सेवा आदि के महा - संकट में पड़कर उदर-वृत्ति भी अत्यधिक कष्ट से कर पाता था। इस प्रकार दुःखपूर्वक आयु को पूर्ण करके संसार रूपी समुद्र में पर्यटन करने लगा।
हे कुमार! लक्ष्मी का चरित्र ऐसा ही है। इसलिए प्रज्ञावन्त पुरुषों के अनुकूल जितना क्षीण हो, उतना भोगना ही चाहिए। किसी के भी भोग-दानादि में प्रतिबंध नहीं करना चाहिए, क्योंकि जितना भी इन्द्रिय सुख है, वह पूर्वकृत कर्मोदय के अधीन है। भावी के उदय को रोकने में कौन समर्थ है? "कडाण कम्माण न मुक्खमत्थि" अर्थात् किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। इस आगम वाक्य का विचार करना चाहिए तथा प्रतिबंध नहीं करना चाहिए । जो उदय की चिंता करता है, वह अपने मूढत्व को ही प्रकट करता है। उत्तम जनों को तो बंध की ही चिंता करनी चाहिए, उदय की नहीं । वह तो पूर्व में ही की हुई है। इसलिए सत्पुरुषों को पर-पुरुषों में आसक्ति रखने के स्वभाववाली लक्ष्मी और स्त्री में बिल्कुल भी आग्रह नहीं रखना चाहिए ।
शौच का आग्रह रखनेवाले सुचिवोद का लक्ष्मी के द्वारा रोषपूर्वक त्याग