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धन्य-चरित्र/341 दुर्बल, अनाथ, बाल, वृद्ध, तपस्वी तथा पिशुन-परिभूत सभी लोगों की गति राजा ही है। अर्थात् इन सबका त्राता राजा ही है। इस कारण जो कोई अत्यन्त दुःख रूपी संकट में गिरता है, वह मेरे पास ही आता है, अन्यत्र नहीं जाता है।"
इस प्रकार विचार करते हुए राजा ने भौंहों के संकेत से उसे लाने की आज्ञा दी। राजा के आदेश को प्राप्तकर प्रतिहारी ने जाकर सिंह द्वार पर खड़े पुरुष को कहा-"तुम सुखपूर्वक अन्दर जाओ।"
वह भी आदेश पाकर राजसभा में जाकर राजा को नमस्कार करके फिर से चीत्कार करने लगा। तब राजा ने कहा-“हे भाई! तुम धीरज धरकर अपना दुःख कहो। क्या तुम्हारा कुछ चोरी हो गया है या किसी दुष्ट के द्वारा तुम पराभूत हुए हो अथवा किसी चोर ने खात्र करके तुम्हारा सर्वस्व हर लिया? या मार्ग में आते हुए चोरों ने तुम्हारा धन चुरा लिया है? या फिर घर में रहे हुए अतिप्रिय अपने आजीविका से उपार्जित धन को पारिवारिक व्यक्ति ने ही विश्वासघात करके हड़प लिया है? इन दुःखों में से तुम्हें कौन-सा दुःख है, जो इस प्रकार विलाप कर रहे हो? सच-सच बताओ।"
राजा के कथन को सुनकर उसने कहा-'हे देव! आज रात्रि में मेरा स्वर्ण-पुरुष चला गया। मैं क्या करूँ? कैसे जानूँ कि चोरी करनेवाला कहाँ चला गया? अतः आप जैसे पुण्यनिधि को निवेदन करने चला आया। क्योंकि
पंचमो लोकपालस्त्वं कृपालुः पृथिवीतले ।
दैवेनाहं पराभूतस्त्वमेव शरणं मम ।।2।। आप कृपालु तो इस पृथ्वी तल पर पाँचवें लोकपाल हैं। भाग्य से पराभूत हुए मुझ पुरुष की आप ही शरण हैं।"
राजा ने उसकी कृशकाय व मलिन वस्त्र देखकर कहा-"हे भाई! तुम युक्ति-युक्त वचन कहो। तुम तो दरिद्रता की प्रतिमूर्ति दिखायी देते हो। तुम्हारे पास स्वर्ण-पुरुष कैसे हो सकता है? जिसके पास स्वर्ण-पुरुष हो, उसकी ऐसी अवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि अतुल भाग्यवानों को ही स्वर्ण-पुरुष की प्राप्ति होती है। स्वर्ण-पुरुष जिसके पास हो, उस पुरुष के श्रेष्ठ लक्षण प्रत्यक्ष दिखलायी देते हैं।
सुनो
कुचोलिनं वन्तमलाऽवधारिणं बह्माशिनं निष्ठुरवाक्य-भाषिणम्। सर्योदये चाऽस्तमने च शायिनं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिनम्।।2।।
खराब वस्रोंवाले, गन्दे दाँतोंवाले, बहुत खानेवाले, निष्ठुर वाक्यों को कहनेवाले, सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोनेवाले विष्णु को भी श्री अर्थात् लक्ष्मी छोड़ देती है। और भी,
दक्षिणाभिमुखं शेते क्षालयत्यध्रिमज्रिणा। मूत्रमासूत्रयत्यू? निष्ठीवति चतुष्पथं ।।