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धन्य-चरित्र/339 अष्टापदों का बल था, जिन रत्नों-निधियों आदि को हस्तगत करके वह जल में भी स्थल पर चलने की तरह पाद-विहार करता था, जल की दो धारा करके उसके बीच में से निकल जाता था, कभी भूमि के अन्दर प्रवेश करके इच्छित स्थान पर ही बाहर निकलता था, कभी मछली की तरह जल में तैरता था- इस प्रकार के अनेक हजारों प्रकार की महिमा से मण्डित रत्न, औषधि मंत्र, यंत्र आदि जिसके भाण्डागार में थे, जिसके दक्षिण-उत्तर की श्रेणियों के नायक गौरी-गांधारी-प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याओं के साधक थे, विमानयान को चलानेवाले थे, वे सभी सेवक के समान आज्ञा मात्र से सभी कार्यों को सफल करनेवाले थे। जिनके पास जल में गति करनेवाले अत्यन्त कुशल अनेक घोड़े, जहाज आदि तथा जल को तैरकर पार करने में समर्थ चर्मरत्न आदि थे। जो सदा 25-25 हजार सुरों तथा असुरों से सेवित था। इतने ऋद्धि बल से गर्वित होने पर भी वह पाप का उदय होने पर समुद्र में डूब गया। इसी सुभूम चक्रवर्ती के पूर्व में पुण्योदय के समय बिना माँगे, बिना बुलाये चक्र आकर हाथ में स्थित हुआ, जिसके फल-स्वरूप समस्त भूतल को उसने जीत लिया। वहीं पाप की उदयावस्था में कुछ भी सहायक साबित नहीं हुआ।
वासुदेव के प्रश्न करने पर नेमिनाथ भगवान ने उत्तर दिया- जराकुमार के हाथों तुम्हारी मौत होगी, यह सुनकर अत्यन्त दु:खत होता हुआ जराकुमार राज्य के सुखों को त्यागकर वन में चल गया। पर पापोदय के बल से उसी के बाण द्वारा कृष्ण मारा गया।
__ अतः कुटुम्ब के ऊपर राग भाव रखना व्यर्थ है और उसके लिए प्रयास करना भी व्यर्थ है। अनादिकाल से मोह राजा का वृद्ध भ्राता कर्म रूपी परिणाम है और वह नट के हाथ में रहे हुए बन्दर की तरह दिन-रात नाचता रहता है, क्षणमात्र भी विराम नहीं लेता। उसके सहायक मोह-मिथ्यात्व-अज्ञान आदि विविध बंध-उदय -उदीरणा आदि पिंजरों में जीवों को डालकर दुःख देते हैं। कर्म-क्लेश की सम्पूर्ण विचित्रता श्री जिनेश्वर देव जानते हैं, पर सम्पूर्ण कथन करने में वे भी समर्थ नहीं है। अतः सहज सुख चाहनेवालों को पहले श्री जिनागमों का अभ्यास करके कर्मों की बंधोदय की विचित्रता का सम्यक् रीति से अवलोकन करना चाहिए, क्योंकि एकमात्र आश्रव द्वार द्वारा ही जीव पुण्य-पाप रूपी फल की विचित्रता को प्राप्त करते हैं। अध्यवसायों की तरतमता तथा योग-स्थानों व वीर्य स्थानों के असंख्याता होने से सम-विषम रूप विचित्र विपाक होता है।
समस्त संसारवर्ती जीव सुख अथवा दुःख का अनुभव करते हैं। इन सुखों व दुःखों का दाता कर्म ही है, अन्य कोई नहीं। जो अज्ञानी जीव कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ है तथा सुख-दुःख का दाता अन्य को समझते हैं, वे मिथ्यात्वी व अज्ञानी हैं। उन्होंने धर्म के स्वरूप को जाना ही नहीं है। उनके लिए यह अनादिकालीन भ्रम ही है। इसलिए धर्मदत्त की तरह पहले कर्म के स्वरूप को जानकर बाद में