Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 345
________________ धन्य-चरित्र/337 तब अपनी मुद्रिका ग्रहण करके, शुद्ध वस्त्रों को पहनकर तैयार किये गये भोजन मण्डप में पूर्व-कृत आसन को राजा ने अलंकृत किया। तब गोभद्र देव द्वारा दी गयी विविध वस्तुओं से निष्णात रसोइयों द्वारा निष्पादित व सज्जित 18 प्रकार के नव्य व दिव्य पकवान भद्रा ने राजा व राजपरिवार को परोसे। राजा आदि सभी उस भोजन का आस्वाद लेते हुए नयी-नयी सुसंस्कृत, विविध प्रकार की तथा कभी पूर्व में आस्वाद नहीं ली गयी वस्तुओं को देखकर आश्चर्यचकित होते हुए "यह क्या है, यह क्या है"- इस प्रकार बार-बार रसोइयों से पूछने लगे। भोजन करते हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए सभी ने यथेच्छापूर्वक पेट भर लिया। भोजन से निवृत होकर और वहाँ से उठकर सभी वापस आस्थान मण्डप में आकर बैठ गये। फिर रत्न जटित स्वर्णमय पानदान में पंच-सुगन्ध से युक्त पान के बीड़े भरकर उनके सामने पेश किये गये। फिर दिव्य अत्तर आदि छिड़ककर विविध वस्त्रों व आभरणों के द्वारा सभी का सत्कार किया गया। राजा को भी विविध देशों में उत्पन्न श्रेष्ठ वस्त्र रत्नों से जड़ित विविध प्रकार के अन्य आभूषण अनेक दिव्य रत्नों से भरे हुए थाल उपहारस्वरूप भेंट में दिये गये। इसी के साथ अदृष्टपूर्वक अनेक अश्व, रथ आदि, इलाचयी, लवंग-जायफल आदि स्वादिम तथा दाख-अखरोट-बादाम-पिस्ता आदि अनेक खादिम द्रव्य राजा को उपहार में देकर उन्हें तुष्टि प्रदान की। राजा ने भी भद्रा को चित्त की प्रसन्नता से कहा-“हे भद्रे! तुम्हारे ऐश्वर्याधिपति पुत्र को अत्यन्त यत्नपूर्वक रखना। अगर मेरे लायक कोई कार्य हो, तो खुशी से कहना। हमें पराया न समझना। मेरे घर को अपने घर की तरह ही मानना। तुम्हारे साथ मेरा स्वामी-सेवक-सा व्यवहार नहीं है। तुम समस्त राज्य को अपना ही समझना। किसी भी प्रकार की शंका दिल में मत रखना। शालिभद्र तो मेरे देश-नगर-राज्यादि की शोभा-स्वरूप है। अतः मुझे वह प्राणों से ज्यादा प्रिय है। इस प्रकार बहुमान करके राजा महलों में लौट गये। उधर शलिभद्र शय्या पर हाथ गाल में लगाकर उदास मन से चिन्तन करने लगा-"मैंने पूर्वजन्म में पूर्ण रूप से सुकृत नहीं किया होगा, श्रीमद् जिनाज्ञा पूर्ण भावपूर्वक नहीं आराधी होगी, जिससे इस भव में विष-मिश्रित मिष्टान्न की तरह पराधीन-सुख प्राप्त हुआ है। परतंत्र-भाव से मिला सुख दुःख ही है। मैंने तो पूर्व में मुक्तिपद और श्रीमद् जिनेश्वर के बिना अन्य किसी को स्वामी के रूप में जाना ही नहीं था। पर आज ज्ञात हुआ कि राजा श्रेणिक भी मेरे नाथ है। अतः पराधीन वृत्ति से जीवन जीना निरर्थक है। अतः मेरे लिए यही उचित है कि मैं अपनी आत्मा को स्वाधीन बनाकर, स्वाधीन सुख की सिद्धि के लिए श्रीमद् जिनाज्ञा को आगे करके गुरुचरणों की उपासना करके श्रीमद् रत्न-त्रय को प्राप्त करानेवाले चारित्र की आराधना करूँ, जिससे स्वाधीन स्वरूप-रमणता का सुख प्राप्त किया जा सके । अतः अब मुझे यही कार्य करना चाहिए। इसे कदापि नहीं भूलना चाहिए। यह काम-भोग रूपी राक्षस अमृतमय सुखवाले विष-घट की तरह विश्वसनीय नहीं है। यह सभी

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