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धन्य-चरित्र/335 का अनुभव न हो।"
इस प्रकार विचार कर "माता के वचन का उल्लंघन नहीं करना कुलीन-वृत्ति है"- इस प्रकार मानकर “माता की भक्ति में किसी प्रकार की हीनता न आये। अतः आसन से उठकर माता के साथ अपने आवास से नीचे उतरने लगा। तब महाराज श्रेणिक, अभय आदि मुख ऊपर करके देखने लगे और देखकर सोचने लगे-"क्या यह इन्द्र है या दोगुन्दक देव? अथवा मूर्तिमान पुण्य का जीवन्त रूप है?"
इस प्रकार शालिभद्र अपने शरीर की कान्ति से घर को दीप्तिमान करते हुए, हिलते हुए कुण्डलों व आभूषणों से सैकड़ों बिजलियों के तेज को फैलाते हुए, वचन, नेत्र और मन की चपलता का निवारण करते हुए अर्थात् सभी को स्थितिभूत करते हुए राजा के समीप आकर विनयपूर्व राजा को प्रणाम किया। क्योंकि उत्तम लोगों का यही व्यवहार होता है। कुमार के आते ही राजा ने भी अत्यन्त आदर व स्नेहपूर्वक हाथ पकड़कर कुमार को अपने पास बिठाया।
__ शालिभद्र के रूप, आभरण, सुकुमारता, मधुर वचन, हाथों की भंगिमा आदि उत्कृष्ट पुण्योदय से विभ्रमित होते हुए सभी सभासद चित्रलिखित से रह गये। परस्पर बोलने में भी वे समर्थ नहीं हुए। सिर हिलाने मात्र की ही चेष्टा वे कर पा रहे थे। राजा भी उसे देखकर थोड़े समय के लिए तो स्तम्भित रह गये, पर फिर शिष्टाचार पालने के लिए साहस धारण करके तथा हृदय को दृढ़ बनाकर प्रीतिपूर्वक शालिभद्र से कुशल क्षेम आदि वृत्तान्त पूछा-“हे वत्स! आपकी क्रीड़ाएँ अनवरत, सुखरूप, मन इच्छित तथा बिना किसी बाधा के गतिमान तो है ना?"
__ कुमार ने उत्तर दिया-'श्रीमद् देव-गुरु के प्रसाद तथा आप-पूज्य की कृपा से क्यों नहीं होंगी?
इस प्रकार चंदन से भी शीतल मधुर-वचनों को सुनकर उल्लासपूर्वक राजा ने कहा-"वत्स! तुम मेरी ओर से किसी प्रकार का संकोच मत करना। जैसी इच्छा हो, वैसे ही मन के अनुकूल विलास का अनुभव करना, क्योंकि तुम तो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हो। नेत्रों के समान रक्षा के योग्य हो। मेरे राज्य-नगर-ऐश्वर्य का मूल तुम ही हो। भिखारी के हाथ में आये हुए रत्न की तरह तुम प्रतिक्षण स्मरणीय हो। अतः यथेच्छा लीला-विलास करना। मन में अधीरता मत लाना। अगर मेरे लायक कोई कार्य हो, तो मुझे जरूर कहना। उसे क्षण–मात्र में पूरा कर दूंगा। मेरे घर को अपने घर के समान ही समझना, कोई अन्तर मत समझना। अगर तुम्हारे मनोरथों की पूर्ति में कोई बाधा आयी, तो वह मेरे लिए बहुत बड़ा दुःख होगा।"
इस प्रकार कहकर विश्वास उत्पन्न करने के लिए शालिभद्र की पीठ थपथपाथी, क्योंकि राजा की जिस पर महान कृपा होती है, राजा उसकी पीठ थपथपाता है-यह राजनीति है। राजा के हाथों के कर्कश स्पर्श से पहाड़ से बहते हुए झरने की तरह उसके पसीने के बिन्दु बहने लगे। शरीर मुट्ठी में रहे हुए कमल की