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धन्य-चरित्र/333 राजा तीसरी मंजिल पर पहँचे। वह स्थान विविध देशों में उत्पन्न चीनांशुक वस्त्रों से रमणीय था। जैसे कि चन्द्रोदय के समय होनेवाली संध्या की आभा रमणीयतर होती है। स्फटिक आदि विविध चमकते हुए पत्थरों से रचित विचित्र प्रकार का भूमितल था। उसे अत्यन्त सुन्दर जानकर राजा वहाँ बैठने को उत्सुक हुए। यह जानकर पुनः भद्रा ने कहा-“स्वामी! चौथी मंजिल को पवित्र कीजिए। यह भूमि भी आपके विराजने योग्य नहीं है। यह व्यापार-अधिकारी, लेखाकार, वसूली करनेवाले सेवकों आदि का स्थान है।"
___ यह सुनकर राजा विचारने लगे-"अहो! पुण्य की शक्ति । मैं तो राजा हूँ। ये तो मेरी प्रजा हैं। पर इनके व मेरे पुण्य में कितने अन्तर है? पर इसमें आश्चर्य कैसा? पुण्य में भावातिरेक से किये गये दान का फल जो जिनेश्वरों द्वारा बताया गया है, वह सत्य ही है।" इस प्रकार विचार करते हुए राजा चौथी मंजिल पर पहुंचे।
वह स्थान रत्न-जटित रमणीय स्तम्भों से शोभित था। वहाँ के आवासों की दीवारे रत्नों से जड़ी हुई परस्पर प्रतिबिम्बों के पड़ने से मार्ग की भ्रान्ति पैदा करती थी। स्थान-स्थान पर बावना चंदन, अगरु, कस्तूरी, अम्बर, तुरुष्क आदि धूपों से उठनेवाली सुगन्ध से परिपूरित घ्राणेन्द्रिय को देखकर सभी मस्तक धुनने लगे। मंदार के सुमनों से गूंथी हुई मालाओं के लटके हुए जाल से स्पर्श करती हुई हवा अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करते हुए मंद-मंद बह रही थी। ऊपर आकाश में चन्द्रोदय के समय रत्नों की लताओं के वलय में शोभित होते रत्नमय पत्रों व पुष्पों का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है? वहाँ झूमकों में लहलहाती हुई मणियाँ, मुक्ताफल आदि के विचित्र वर्णों को देखकर आँखे वहाँ से हटती ही नहीं थी। स्थान-स्थान पर अनेक अभिनव रचनायें थीं, क्या-क्या देखा जाये और क्या-क्या कहा जाये? जो जहाँ देखता, उसकी दृष्टि वहीं स्थिर रह जाती। उसके बाद राजा आदि स्वयं ही कहने लगते-"हम तो यही रुकेंगे, यही रहकर इन रचनाओं को देखेंगे।"
तब भद्रा ने राजा के आशय को जानकर रत्नमय भव्य सिंहासन मँगवाकर ऊँचे स्थान पर स्थापित करवाकर दिव्य छत्र आदि से संस्कारित करवाकर राजा से कहा-"देव! इस आसन को अलंकृत कीजिए।" राजा ने वह सिंहासन देखकर "क्या यह इन्द्र का है अथवा चन्द्र का है?" इस प्रकार विचार करते हुए उस सिंहासन पर बैठकर कहा-"भाग्यवती! आपका ऐश्वर्यशाली पुत्र कहाँ है? आप उसे बुलायें, ताकि मैं उस पुण्यनिधि के दर्शन कर पाऊँ।"
तब भद्रा ने राजा के आदश को प्राप्तकर सातवीं मंजिल पर जाकर शालिभद्र से कहा-"वत्स! नीचेवाली मंजिल पर शीघ्र ही चलो। महाराज श्रेणिक हमारे आवास पर स्वयं पधारे हैं।"
इस प्रकार के माता के वचनों को सुनकर शालिभद्र ने कहा-"माता! इसमें मुझे क्या कहना? योग्य धन देकर श्रेणिक को ग्रहण कर लीजिए। क्या मैं आपसे