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धन्य-चरित्र/332 साथ राजा दिव्य शोभा से उपशोभित होते हुए शालिभद्र के महल तक पहुँचे।
वहाँ प्रथम प्रवेश द्वारा पर नील रत्नों के समूह से उपशोभित सुवर्ण कलशों से चमकते बीच-बीच में अनेक श्रेष्ठ रत्नों से बनाये हुए विचित्र तीन तोरणों को राजा ने देखा। फिर सभी महल में प्रवेश करते हुए आगे बढ़े, तभी जल का भ्रम पैदा करनेवाले, स्फाटिक रत्न से बने हुए भूमितल को देखकर कितने ही व्यक्ति जल के भ्रम से कपड़ों को पकड़कर ऊपर करने को उद्यत होने लगे, तभी बुद्धि सम्राट अभयकुमार ने अपनी निपुणता दिखाने के लिए तथा अज्ञता व हँसी का पात्र बनने से रोकने के लिए हाथ से सुपारी को आगे की ओर गिराया। भूमि के संयोग से आवाज होती हुई सुनकर “यह भूमितल स्फटिकमय है।" इस प्रकार निश्चय करके लोग आगे बढ़ने लगे।
उसने आगे दिव्य मणियों से युक्त स्तम्भ से घिरे हुए अति-सुन्दर स्थान को देखकर मन में चमत्कृत होते हुए राजा के वहाँ ठहरने के अभिप्राय को उनकी इंगिताकृति से जानकर भद्रा ने कुलवधुओं के साथ राजा को मणियों व मोतियों से बधाकर अनेक हजारों लाखों सुवर्ण-रत्नों से न्यौछावर करके अंजलि-युक्त होकर विनति की-“स्वामी! ऊपर की मंजिल भी पवित्र कीजिए। यहाँ पर आपके विराजने योग्य स्थान नहीं है, क्योंकि यहाँ तो द्वारपाल आदि के रहने का तथा पशुओं को बाँधने का स्थान है।"
यह सुनकर राजा सोचने लगा-"अहो! पुण्यवानी में कितना अन्तर है? मेरा शयन स्थान भी ऐसा रमणीय नहीं है। शुद्ध भावों के द्वारा अत्यन्त मानपूर्वक दिये गये दानादि धर्म का ही यह फल है। जिनागमों में भी कहा गया है- असंख्याता अध्यवसायों से एक प्रकृति स्थान निर्मित होता है, वह भी असंख्याता भेदों से युक्त कहा गया है, वहाँ भी अनुभाग-भेद अनंता है। इस प्रकार श्रीमद् जिनेन्द्रों द्वारा कहे गये पुण्य व पाप के भेद विचित्र हैं। अतः उनके वचन ही सत्य हैं।"
इस प्रकार शुभ उपयोग-युक्त होकर सीढ़ियों द्वारा राजा अपनी परिषदा के साथ ऊपर की मंजिल पर चढ़ा। उस मंजिल के गवाक्ष विविध प्रकार के रत्नों से तथा मोतियों से गूंथी हुई जालिका से युक्त थे। स्थान-स्थान पर सुगन्धित धूप आदि वासित हो रहे थे। विविध वाद्ययंत्र व शस्त्र-समूहों की सजावट से चारों ओर दर्शनीयता प्रतीत हो रही थी। वहाँ भी भद्रा ने आकर निवेदन किया-'पूज्य-पादों द्वारा ऊपर की भूमि को अलंकृत करने की कृपा की जाये। यहाँ तो दासी, दास, तलवार-भाले को धारण करनेवाले, वाद्ययंत्रों को बजानेवालों का निवास है। यह भूमि भी आपके विराजने योग्य नहीं है। आप ऊपरी मंजिल पर पधारें।"
राजा चमत्कृत होते हुए फिर से विचारने लगे-"देखो! पुण्य का विलास! मेरे निवास स्थान से बढ़-चढ़कर तो इनके दास-दासियों का स्थान है। यह सभी उत्कृष्ट भावपूर्वक दिये गये दानादि का ही परिणाम है।" इस प्रकार विचार करते हुए