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धन्य-चरित्र/338 इन्द्रजाल है। इनका क्या विश्वास?" इस प्रकार मन ही मन भावना भा रहा था, तभी देव-दुन्दुभि का नाद सुनायी दिया।
उस आवाज को सुनकर शालिभद्र ने सेवकों से पूछा-“हे सेवकों ! यह देव दुन्दुभि कहाँ से सुनायी पड़ रही है?"
उन्होंने कहा-"स्वामी! आज भव्य-जीवों के प्रबल भाग्योदय से वैभारगिरि पर्वत पर मोह रूपी अंधकार को नष्ट करनेवाले रवि के समान श्री वीर प्रभु पधारे हैं। इसी कारण से देवों ने दिव्य भेरी बजायी है।"
तब शालिभद्र पुण्यपुंज श्रीवीर प्रभु के आगमन की खबर पाकर बादलों के गर्जन को सुनकर मयूर की तरह अतीव प्रसन्नता को प्राप्त हुआ। हर्षपूर्वक भक्ति-भाव से युक्त होकर सद् अलंकारों से अलंकृत होकर सार-सार परिवार को ग्रहणकर सुखासन पर आरूढ़ होकर चला और श्रीवीर प्रभु का दर्शन होते ही सुखासन से उतरकर पाँच-अभिगमपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर पंचांग द्वारा नमन करके यथोचित स्थान पर देशना-श्रवण को उत्सुक बनकर बैठ गया। तब श्रीवीर प्रभु ने संसार वासना के क्लेश को नाश करनेवाली आक्षेपणी आदि भेदों से युक्त देशना प्रारम्भ की। जैसे :
आदितस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीविते, व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालोऽपि न ज्ञायते। दृष्ट्वा जन्म जरा-विपत्ति-मरणं त्रासश्च नोत्पद्यते, पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्त-भूतं जगत् ।।2।।
सूर्य के बार-बार आने और जाने से जीवन क्षय को प्राप्त होता रहता है। व्यापारों व कार्यों के अत्यधिक भार से काल का ज्ञान ही नहीं होता। जन्म, जरा, विपत्ति, मरण, त्रास को देखकर मोह-मदिरा को पीकर प्रमाद से उन्मत्त बने मनुष्य को फिर भी वैराग्य उत्पन्न नहीं होता।
अनादि शत्रु रूप पाँच प्रमादों के वश में रहा हुआ जीव तत्त्व-अतत्त्व कुछ भी नहीं जानता है। अन्य-अन्य गतियों से आकर एक घर में समुत्पन्न हुए व्यक्तियों को अज्ञानतावश जीव अपना मानता है और उन्हें हितकारक भी मानता है। उनका पालन-पोषण करने के लिए जीव अट्ठारह पापों का सेवन करता है। पर यह नहीं जानता कि सुख-दुःख प्राप्त होना स्वकृत पुण्य व पाप के उदय के बल पर ही होता है। अगर पुण्योदय हो, तो सभी अनजान, अपरिचित, असंभव, बिना माँगे ही आकर सेवा करते है और पाप का उदय हो, तो अत्यन्त परीचित, अनेक दिनों से पालन-पोषण किये हुए, प्राणों की आहुति देकर पाले हुए भी सुख का लेश मात्र भी नहीं देते, बल्कि दुःखदायक ही होते हैं। जैसे-सुभूम चक्रवर्ती के पाप का उदय होने पर वह समुद्र में डूब गया। जो छः खण्ड का भोक्ता, चौदह रत्नों का स्वामी, नव-निधि का भण्डार, दो हजार क्षोणि-सेना का स्वामी था, जिसकी एक-एक भुजा में चालीस लाख