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धन्य-चरित्र/336 तरह म्लान हो गया। यह देखकर भद्रा ने राजा से निवेदन किया-"स्वामी! यह पैत्तालिक देव है। दिन के अग्नि–ताप को सहने की शक्ति नहीं है, अतः आप इसे विलास-भवन में जाने की अनुमति प्रदान कीजिए।"
तब राजा ने सहर्ष बहुमानपूर्वक आज्ञा दी-"वत्स! सुखपूर्वक ऊपरी आवास पर पधारो।"
तब राजा के आदेश को पाकर शालिभद्र तत्क्षण सातवीं मंजिल पर गया, जैसे मोह से मुक्त आत्मा लोकान्त में जाकर ठहरती है। ऊपर जाकर वैराग्यपूर्ण हृदयवाला होकर शय्या पर बैठ गया।
उधर-भद्रा ने करबद्ध अंजलिपूर्वक बहुमान के साथ परिकर सहित राजा को भोजन के लिए निमन्त्रित किया। अत्यन्त आदर व भक्ति देखकर राजा ने स्वीकृति दे दी।
तब जो सैकड़ों-हजारों बार संस्कारों द्वारा सिद्ध किये गये शत-सहस्र-लक्ष द्रव्यों द्वारा तैयार किये गये शतपाक, सहस्त्रपाक, लक्षपाक तेलों द्वारा मज्जन-शाला में निपुण मालिशकारों द्वारा राजा की मालिश करवायी गयी। उसके बाद सुवासित व गर्म तीर्थ-जल के द्वारा राज-स्नान विधि से नहाते हुए राजा के हाथ से रूठी हुई पत्नी की तरह मणि की मुद्रिका कुएँ में गिर गयी। स्नान करके शुद्ध रक्त वस्त्र से अंगों को पौंछकर पहले बावना चंद के रस से शरीर का लेप किया गया। उसके बाद शृंगार करने के समय आभूषणों व वस्त्रों को धारण करते हुए राजा को अंगुलि में अंगूठी दिखायी नहीं दी। तब उसे खोजने के लिए राजा ने इधर-उधर देखा, फिर पुनः पुनः अंगुलि को देखने लगे और विचार करने लगे-“मेरे राज्य का सार रूप मुद्रा रत्न खो गया। अब क्या किया जाये? किसको कहा जाये? दूसरों के घर पर आकर किसी पर झूठा आरोप लगाना युक्त नहीं है।"
इस प्रकार राजा अपने मन ही मन में विचार कर रहा था कि दूर खड़ी भद्रा ने अपनी निपुणता से जान लिया कि राजा की मुद्रिका कहीं खो गयी है। तब उसने इशारे से दासी को बुलाया और कहा कि जलयंत्र से आभूषणों को खींचों, जिससे वे ऊपर आ जावें। दासी के द्वारा वैसा ही किये जाने पर महा-इभ्य नागरिकों में आये हुए गरीब गंवार की तरह अलंकारों के ढेर पर पड़ी मुद्रा-रत्न को देखकर राजा ने दासी से कहा-"ये इतने आभूषण किसके हैं ?"
दासी ने कहा-"प्रभु ! हमारे स्वामी शालिभद्र द्वारा प्रतिदिन त्यागा जानेवाला कचरा है।
यह सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए राजा विचार करने लगा-"अहो! पुण्य की गति अनिर्वचनीय है। स्वामी और सेवक के पुण्य का अन्तर तो देखो। अपने-अपने अध्यवसायों की प्रबलता की विचित्रता से किये गये धर्म का ही यह विचित्र फल है। यह जैन वाणी कभी मिथ्या नहीं होती।"